Wednesday, 22 July 2015

सुहासी

सुहासी से अभय की दोस्ती ऐसी थीं की बात कभी भी गर्ल-फ्रेंड वाली बन सकती थीं और गर्ल-फ्रेंड के बाद शादी की।
सुहासी अपनें नाम की जैसी हर पल मुस्कुरानें वाली। जिंदगी को खुशियों से जीनें वाली। अभय के पूछनें पे खिलखिला ये बतानें वाली की सुहासीं का अर्थ ही हैं जिसकी हंसी सुन्दर हो और मेरी हैं तो मेरे पापा ने मेरा नाम सुहासी रखा हैं।
अभय भी अपनें नाम के जैसा बिना किसी भय के जीनें वाला। किसी भी बातों का कोई भय नहीं, जो सच हैं उसको समझ के, उसको मान के जीनें वाला।
नियती को कुछ और मंज़ूर होता हैं, एक रोज़ शापिंग से आतें वक्त कुछ गुंडे-बदमाश अभय और सुहासीं से छीना-झपटी करते हैं फिर अभय को लहू-लूहान करकें सुहासीं का बलात्कार कर देते हैं। समय जैसे बदल जाता हैं, वो प्यार, वो शादी के किस्सें किताबी लगनें लगते है। सामाज़ सुहासीं को जिम्मेवार ठहराता हैं।
अभय के माँ-बाप ऐसी पीडित लडकी को अपनें घर की बहू बनानें को तैयार नहीं हैं, जिससे कभी उनका बेटा या अब भी प्यार करता हो। ऐसा करके वो अपनें कुल-खानदान को बदनाम नहीं करना चाहतें हैं। जबकि सब ये जानते हुएं भी कि उस वक्त अभय भी सुहासीं के साथ था, वो उसे उस वक्त ना बचा सका और अभी भी वो कुछ कर नहीं पा रहा या करना नहीं चाहता।
सुहासीं का हाल बुरा हैं, वो अपनें उस अभय को याद करके कभी आँसू बहाती जो सिर्फ और सिर्फ कभी उसका हुआ करता था तो कभी हुएं अपनें पे उस ज़ुर्म को सोचकर अंदर तक टूट जाती। उससे उसकी हंसी छीन गयी थीं, उसका नाम उससे ले लिया गया था, उसकी इज्जत लूट लीं गयी थी। क्या अब वो मजबूर हो गयी थीं।
सुहासीं के माँ-बाप का हाल बिलकुल उसी माँ-बाप की तरह था जिनकी बेटी के साथ ये दुर्व्यहार हुआ हो। फिर भी हिम्मत जुटा के अपनें बेटी को समेटनें की एक कोशिश करते हैं। सुहासीं अपनें माँ-बाप को अपनी हालत के कारण इतनी परेशान देखकर फिर से जिंदगी जीनें की कोशिश करती हैं, वो बाहर निकल फिर कुछ नये सिरे से जीनें की चाह रखती हैं।
बाहर निकल सुहासीं खुद पे शर्मिंदा हैं। अखबारें कभी कुछ तो कभी कुछ कहती हैं, मिडिया उससे तरह-तरह की सवालें करती हैं, लोग उसे देख आपस में फुसफुसानें लगते हैं, उससे दूरी बनानें लगते हैं, अपनें बच्चें को आंटियाँ और मायें आँचल में छुपानें लगती हैं। ऐसा देख जैसे उसे लगता हैं के ये रस्तें की बेजान दीवारें भी उससे कुछ पूछ रही हैं, कुछ छुपा रही है। सुहासीं ऐसे सामाज को देखकर खुद ग्लानि से भर जाती हैं।
एक पार्टी फंक्शन में फिर अभय से मुलाकात होती हैं, जो ना के बराबर होती हैं। सुहासीं अभय को जानती हैं, भले से वो कुछ भी कर रहा हो या उससे कुछ कराया जा रहा हो वो सुहासीं को इस हालत में नहीं देख सकता। सुहासीं उससे खुद को भूला देनें को कहती हैं। उसे अभय की कोई हमदर्दी की जरूरत नहीं, वो नहीं चाहती की अभय उससे शादी कर उसपे कोई दया दिखाएं, कोई उपकार करें या धौंस जमाएं।
महफिल के लोग उसे देख फिर से वही एक बात दुहरातें हैं, हाँ इसी का रेप हुआ था। पता ना कैसे जी रही हैं अब-तक और कोई होता तो शर्म के मारें मर गया होता। देखनें में तो भली ही लगे हैं, पता ना अंदर क्या हैं। अब पता ना कैसे रेप हो गया, गलतियाँ तो भाई आजकल लडकियों में भी होता हैं। जितनी लोग उतनी बातें, जितनी रंग उतनें जुबां रंगीन्।
महफिल की खामोशी टूटती हैं, अभय फिर से जिंदा होता हैं। वो खुद को वहाँ ज़िम्मेवार ठहराता हैं। गलती किसकी रहती हैं, गलती कौन करता हैं, गलती क्यूं हुईं इन सब को दरकिनार कर वो उन बदमाशों की अपराध को बताता हैं। सामाज को उनकी गलतियाँ बताता हैं, उसी सामाज की एक लडकी को उसी सामाज से ठुकराया हुआ दिखाता हैं। उस लडकी की आत्मीयता को दिखाता हैं।
सुहासीं को फिर से उसका प्यार अभय मिल जाता हैं। वो लोगों को एक नयी नज़र से खुद को दिखता हुआ देखकर खुश हैं। एक उम्मीद की किरण जगती हैं, उसे कुछ बदलता हुआ दिखता हैं, एक शुरूआत सा, मग़र वो इससे भी खुश हैं, सुहासीं की हंसी फिर से वापस आ जाती हैं।

सोच : एक लडकी का बलात्कार एक बलात्कारी सिर्फ एक बार करता हैं, फिर ये जमाना हर-बार उसका बलात्कार करता हैं। उस बलात्कारी और फिर इस पूजें जानें वालें सामाज़ में कौन समझदार हैं, दोनों फिर एक ही रंग के लगनें लगते हैं। सज़ा देना कानून का काम हैं, मग़र उस पीडित लडकी का साथ देना हमारा काम हैं, इस सामाज़ का काम हैं। अपनें कर्तव्य को समझें और जिम्मेदार बनें ना की जिम्मेवार।

A girl is raped by a rapist at once, then after this cruel society will rape her at every second of her life.

Nitesh Verma

No comments:

Post a Comment