बद्दुआएँ दे के गयी है हवायें मुझको
कोई चिठ्ठी घर को अब बुलाये मुझको
मेरी भी जाँ इन सरहदों में सिमटी रहे
अब यूं ना आकर कोई जगाये मुझको
इंसानों को मजहबों में यूं बाँट दिया है
हिंदू-मुसलमां आके सच बताये मुझको
बंजर जमीं कितना सूखा-सूखा मैं वर्मा
प्यासा एक दरिया कोई बुझाये मुझको
नितेश वर्मा और एक दरिया
कोई चिठ्ठी घर को अब बुलाये मुझको
मेरी भी जाँ इन सरहदों में सिमटी रहे
अब यूं ना आकर कोई जगाये मुझको
इंसानों को मजहबों में यूं बाँट दिया है
हिंदू-मुसलमां आके सच बताये मुझको
बंजर जमीं कितना सूखा-सूखा मैं वर्मा
प्यासा एक दरिया कोई बुझाये मुझको
नितेश वर्मा और एक दरिया
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