Wednesday, 22 July 2015

मैं शहर की आवाज़ लिखनें आया हूँ

मैं शहर की आवाज़ लिखनें आया हूँ
मैं भी हूँ उतना ही गुनेहगार
जितना के मैं गुनाह लिखनें आया हूँ

किसी मासूम को रस्तें के किनारें देखा
किसी बच्चें को जीनें के लिये कमाते देखा
कोई बेबस बाप को हारतें देखा
किसी माँ की बेटी को भटकतें देखा
हर ओर एक शोर सा हैं, ये लहर कैसा हैं
ज़िंदा तो हैं सब
मग़र सबको साँसों से बिछडते देखा
लडते हैं देखा, मौत में खुद को करते हैं देखा
सब दिवा-स्वप्न सा हैं लगता
सबका वादा उतना ही झूठा लगता
काली रात वो तूफा-ओ-बारिश वाली
छ्ट तो गयी हैं,
मग़र सूरज को खुद से ही छुपते देखा
सब बदलते, बिछडते, बिगडतें, बिखरते देखा
मग़र अब जब जागा तो कहनें आया हूँ
मैं शहर की आवाज़ लिखनें आया हूँ
मैं भी हूँ उतना ही गुनेहगार
जितना के मैं गुनाह लिखनें आया हूँ

नितेश वर्मा और गुनाह लिखनें आया हूँ

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