Wednesday, 22 July 2015

पंछी

बेटा कहाँ रह गयी तू, ओफोह! अभी तक तू तैयार भी नहीं हुई। बेटा लडके वालें तुझे देखने आते ही होंगे। जल्दी कर मेरा प्यारा बच्चा। 45 वर्षीय कमला देवी ने अपनी बेटी पंछी को मोबाइल में सर खपाते हुएं देखकर कहा।
और ये तेरा 24 घंटो इस मोबाइल में क्या गुम रहता हैं जो तू ढूँढती फिरती हैं।

पंछी मोबाइल से एक नज़र हटाते हुएं कमला देवी से कहती हैं माँ मैनें आपको कितनी बार मना किया हैं कि मैं अभी शादी नहीं कर सकती, अभी मुझे बहोत कुछ करना हैं, मुझे भी नाम कमाना हैं मुझे भी अपनें पैरों पे खडा होना हैं, मुझे अभी ये शादी-वादी नहीं करना, आप पापा से बोल के उन्हें मना क्यूं नहीं कर देती।
कमला देवी : बेटा यूं कब तक तुम अपने आप से भागती रहोगी। यूं कब तक उस एक गलती से खुद को और अपनें घरवालों को दुख देती रहोगी। बेटा हो जाता हैं ऐसा ज़िन्दगी में, कभी-कभी कुछ चीजें अपनी हदों से दूर की होती हैं, कुछ चीजों पे हमारा बस नहीं होता, तभी तो हम किस्मत के भरोसें से कुछ वक्त जी लिया करते हैं। बेटा अब देर मत करो चलो जल्दी तैयार हो जाओ, मुझे अभी इतनी फुरसत नहीं की मैं तुम्हें फिर से वही बात समझानें बैठ जाऊँ जो मुझे समझाना कभी अच्छा नहीं लगता।

पंछी : ओके, ममा। तुम चलो मैं आती हूँ। तुमनें उनलोगों को मेरे बारें में बताया हैं ना।

कमला देवी : हाँ बेटा उन्हें इस बात से कोई ऐतराज नहीं। वो तुम्हारें अतीत से नहीं तुम्हारें वर्तमान से तुम्हें स्वीकार करेंगे।

पंछी : ठीक हैं माँ, जैसा तुम्हें अच्छा लगे।

पंछी 27 वर्षीय एक मध्यम वर्गीय परिवार से हैं, लेकिन उसे इसका कभी अफसोस ना हुआ था कि वो मध्यम वर्ग से हैं जब तक उसके ससुराल वालों नें उसे यह कह कर ना दुत्कारा था कि हमें देनें के लिये अब तुम्हारें बाप के पास कुछ हैं ही नहीं तो हम तुम्हें अपनें पास मुफ्त की रोटिया तोडनें के लिये क्यूं रखें रहें, इकलौती हो जा के कुछ ले आओ या फिर अपनें बाप के पास ही पडी रहो। बहोतों नाज और प्यार से पली-बढी पंछी ने कभी ये सपनें भी नहीं सोचा था के उसे भी कभी वैसी ही सामाज़ का सामाना करना पडेगा जो वो कभी किताबो और कहानी या फिर अपनें दादा-दादी से सुना करती थीं। पंछी अपनें नाम के जैसी थीं, बिल्कुल बेबाक, खुली ख्यालों की, आसमां को मुठ्ठी में करनें वाली, बिन पता, बिन मंज़िल सफर करनें वाली। पंछी कभी-कभार अपनें ससुराल में ये बैठ के रोतें हुएं सोचा करती थीं, शायद उसे इतनें प्यार से पलनें का कोई अधिकार नहीं था, उसे भी सामाज़ी बातों में घुट-घुट के जीना था, कमसे कम आदत तो लगी रहती, किसी की बातों का कोई बुरा नहीं लगता। काश! मैं भी पापा के लाड –प्यार से कभी परे होके माँ की ये बात सुन लेती.. की बेटियाँ भी अगर पढ-लिख के अच्छी रोजगार की मालिक हो तो उसे भी घर में एक अच्छा औदा मिलता हैं, उसके भी बातों के कोई मायनें होते हैं। पंछी की छ्न-छन करती पायलें भी तो पंछी को कभी एक डाल पे बैठनें नहीं देती थीं। कभी यहाँ तो कभी वहाँ, क्या वो आज भी उसे किये को फिर से भोग रही हैं, ज़िन्दगी की तस्वीरें बदल गयी हैं लेकिन ज़िंदगी तो अभ्भी भी वही ठहरी हैं।

पंछी, ओ पंछी बेटा जल्दी कर वो लोग आ गये हैं, बेटा इस बार थोडा ढंग से बात करना और ज्यादा बोलनें की कोई जरूरत नहीं हैं। तेरे पापा को जो अच्छा लगेगा वो उन्हें देंगे, और बेटा ये शादियाँ भी तो दहेजों पे ही होती हैं, मैं भी तुम्हारी माँ हूँ मगर मुझे भी तुम्हारें पापा के घर आनें के लिये दहेज देना पडा था। बेटा ये तो रिवाज़ हैं, यही नियम हैं और नियम तो हम तोड नहीं सकतें ना, परंपराएं बेटा बंद नहीं होती, बस दब जाती हैं या दबा दी जाती हैं। कमला देवी ये बात पंछी को इसलिये बता देना चाहती थीं कि वो चाहती थीं कि बेटा लडकियाँ ही थोडा दब के रह जाएं तो क्या होगा।

पंछी तो थीं खुली ख्यालातों की मगर जब इंसान अंदर से टूट जाता हैं तो सब समझदारी, सारी सीखें सब चीजें धरी की धरी रह जाती हैं। पंछी अब अपनी माँ को समझनें लगी थीं। वो ये नहीं चाहती थीं कि जिस पापा की वो गुड-बुक्स में गुड गर्ल थीं वो किताबी पन्नें ये कहके मोड दिये जाये कि वो अब किसी काम के नहीं। मगर पंछी तो ये भी कभी नहीं चाहती थीं की वो अपनें पापा के शरीर पे फिर कभी कोइ बोझ बने, अगर उसके ससुराल वालें उससे किसी चीज की डिमांड करते हैं तो वो उन चीजों को पूरा करें। इसलिये वो पढ-लिख के कुछ बनना चहती थीं, किसी कालेज में दाखिला नहीं ले सकी, हालांकि ऐसा नहीं हैं की उसनें कोशिशें नहीं की। उसनें जितनें बार भी घर से बाहर कदम निकालें लोगों की बातें उसे फिर उसी चूल्हें की आँच में धकेल देती। घर नहीं सँभाल पायी तो अब दुनिया सँभालनें निकली हैं, नौकरी करेगी। मगर पंछी चाह के भी ये किसी को समझा नहीं सकी ये दुनिया कितनी आसान हैं जो सिर्फ बातें बोल के उसे रोनें को छोड देती हैं, उसे उसके हाल का छोड देती है, मगर घर दो लोगों के मिलन से बनता हैं, विवादें जन्म लेती हैं लोगों में अलगाव होता हैं तो घर प्रेम छोड के दुनियादारी में बदल जाती हैं, लोगों के मायनें बदल जाते हैं, उनके रूप बदल जाते हैं। यहीं कारण हैं पंछी ने डिस्टेंस-लर्निंग कोर्स ज्वाइन करा था, जिन्दगी के खराब होनें से अच्छा हैं की वो आँखें खराब हो जायें जो उसके लिये कभी खराब दिन ले के आनें वाली थीं। मगर ये बात उसके अलावा और कौन समझ सकता था, माँ मना करती रहती थीं, दलीलें देते फिरती थीं, बेटा लडकियों का गहना तो उनका रूप हुआ करता हैं। मगर जिंदगी ने पंछी को जो कुछ भी सिखाया था वो सब इसके विपरीत था। मगर इंसान तो परिस्थितियों से ही तो सीखा करता हैं सोच के पंछी अपनें आप को स्वीकर लेती।

कुछ देर में लडके वालें भी पंछी को देखने आ गये। बात पहले ही सब हो गयी थीं। फिर उसके अपनों ने बिना उससे पूछें उसके खुशहाल भविष्य की बात कहीं कर ली थीं या यों कहें की खरीदनें की फिर से एक नाकाम कोशिश कर ली थीं, पंछी ये समझती थी, लेकिन कभी वो ये भी सोचती थीं की जब उसके पापा उसके माँ से इतना प्यार करतें हैं उन्हे इतना खुश रखते हैं तो उन्हें पैसे से तौल के क्यूं ले आये थे कभी। उस वक्त माँ के माँ-बाप पे क्या बीतती होगीं, जब कहीं पापा लोग के भी डिमांड हाई हुआ करते होंगे, जब हर रोज कोइ नयी चीज पसंद आ जाती होंगी। पंछी बहोत सोचती पर कोई जवाब नहीं तालाश कर पाती, वो खुद से तो कभी इन हालातों से हार कर अपनें कमरें में खुद को बंद करके रोनें लगती थी। क्या हैं आखिर ये ज़िन्दगी और दुनियादारी पंछी अभी तक कुछ समझ नहीं पायी थीं।

फिर से वही लडको वालों की एक लम्बी लिस्ट। पंछी आज खुद को और अपनें बाप को इतना मजबूर और इतना हारा महसूस कर रही थीं कि उसके पापा आज उसके लिये रिश्तें खरीद रहें हैं, भले से उस खरीद में उनकी घर जायें उनकी जमीन बिक जायें वो खुद कर्जें-कर्जें में डूब जायें। पंछी ये सोचती आज वो लोग कहाँ गये जो लडके और लडकियों की बराबरी की बात किया करते हैं और जो ये लडका देखनें भी उसे आया था वो भी तो एक पढा-लिखा और किसी ऊँचे औदे का लगता था, फिर उसकी मत कहाँ गयी, उसकी सारी शिक्षा कहाँ गुम हो गयी, क्या किताबी महारत दुनियादारी पे आके खत्म हो जाती हैं।

फिर भी पंछी चुप रही.. सौदा हुआ, कुछ खरीदा तो कुछ बेचा गया। आदमियों को एक हद तक गिरतें देखा गया, सब पढे-लिखें मगर सारें के सारें मतलबी। खैर सौदा भी खत्म हुआ अब लडकी को देखनें की बारी। जो लडका दहेज की बात पर एक बार भी ना बोल पाया वो लडकी को कभी हाइट मैच करके देखता तो कभी उसके आँखों पे लगे चश्में का कारण पूछनें बैठ जाता। दलीलें खत्म हुई, पंछी फिर से पंसद कर ली गयी थीं। सब खुश थें खास कर घरवालें। अब एक ऐसे घर पंछी को जाना था जहाँ उसके लिये उसके माँ-बाप नें उसे ये कहकर भेजा था, बेटा वो अब तेरा घर हैं, उसी घर अब तुझको जाना हैं, बेटा यहीं रिवाज हैं लडकियों को दहलीज बदलना होता हैं, उन्हें लडकों के पास जाना होता हैं। सब बराबर हैं लेकिन हक आज भी लडकियों को अधूरा ही मिलता हैं। उन्हें सारें सुख दिये जाऐंगे या उनका वादा किया जाऐगा लेकिन वो सुख कोई और अपनी मर्ज़ी से जब चाहें जैसे चाहें करेगा, उन्हें उनका ही मोहताज बनकर ता-उम्र जीना पडता हैं। अब शायद पंछी पंछी नहीं रहीं अब तो वो बडी हो गयी हैं, उसकी पायल अब बेडियाँ हो गयी हैं वो सिर्फ दहलीज के अंदर ही आवाजें कर सकती हैं। पंछी की पढ-लिख के कमानें की ख्वाहिश से फिर लडके वालों के ऐतराज के कारण वो फिर अपनी ज़िंदगी से परेशां हो गयी, माँ-पापा भी लडके वालों की इस बात को मना नहीं कर पाये थें। यहीं उसके माँ-बाप नें उसके लिये सामाज़ बनाया था, मान के पंछी नें खुद को इस जहाँ से रिहा कर दिया। यही पंछी की कहानी थीं, पंछी कब तक पिंज़रें में रहती, उसके हक में मर जाना ही था। पंछी की सवालें आज भी दफ्न हैं, किसी के घर में तो ऐसे ही किसी के किताबो-पन्नों में।


नितेश वर्मा

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