Friday, 28 August 2015

मैं बेचैन यूं ख्यालें बाँधें चल रहा हूँ

मैं बेचैन यूं ख्यालें बाँधें चल रहा हूँ
गठ्ठर इक सवालें बाँधें चल रहा हूँ।

ईंट दरिया में फेंक कर देखता हूँ
मैं समुन्दर सर पे बाँधें चल रहा हूँ।

तोड़ दूँ उस हर कली को आज मैं
भँवरों की बाज़ारें बाँधें चल रहा हूँ।

मुतमईन चेहरा, दिल फरेबी वर्मा
कातिलाना यारी बाँधें चल रहा हूँ।

नितेश वर्मा और बाँधें चल रहा हूँ।

ये बेफिक्र आसमां पे चलने वाले लोग

ये बेफिक्र आसमां पे चलने वाले लोग
पाँव तले जमीं को कुचलने वाले लोग।

इनको इनकी गिरती औकात दिखा दूँ
आये बातों से मुझे बदलने वाले लोग।

अपने इज्जत के चर्चे शहर में कर दो
भरें रात हिजाबो से खुलने वाले लोग।

हर मौके पे उसके घर को चले जाता हैं
रोज़ अखबारों में ये मिलने वाले लोग।

दिल को उसके घर के पास रख आया
इंतजार में मेरे वो मचलने वाले लोग।

अब तस्वीर से मेरे आँखें हटती नहीं हैं
वर्मा शहर में हम संभलनें वाले लोग।

नितेश वर्मा और लोग।

इस शहर नें मुझको यूं रूलाया बहोत हैं।

मुझको यकीन हैं की ये वक्त भी बदलेगा
इस शहर नें मुझको यूं रूलाया बहोत हैं।

नितेश वर्मा

Tuesday, 25 August 2015

ये सूरज तो अब भी पश्चिम में ढलता हैं

चिडियों की आवाज़ के साथ निकलता हैं
ये सूरज तो अब भी पश्चिम में ढलता हैं

कौन कहता हैं के जहां में खुदा हैं ही नहीं
फिर रात भर चाँद में और कौन जलता हैं

इबादत कभी सच्चें दिलों से की ही नहीं
वो जो हरपल लेके हाथ में राख मलता हैं

मुझसे शिकायत बस इस लहज़े में की हैं
के कैसे मौसम से पहलें इंसान बदलता हैं

भर के आँखों में एक चमक चल दिये वर्मा
जानें ये नाम सबके आँखों में क्यूं खलता हैं।

नितेश वर्मा

मेरे पास तो तेरी हर बातों का जवाब है

मेरे पास तो तेरी हर बातों का जवाब है
मुझसे ना मुँह लग मेरी आदत खराब है।

मैं जिंदा हूँ, तो इक जिद से मिलता रहा
लोग हम मरने के बाद तो बस राख है।

मैं जानता हूँ इक दिन मुठ्ठी में होंगे सब
मेरे निगाहों में तो आज बस ये सराब है। [सराब = मृग-मृचिका]

जिन राहों पे धुँआ था आज वहाँ ख्वाब है
बच्चों से जा के पूछो यही तो इंकलाब है।

नितेश वर्मा और  मेरी आदत खराब है।

Monday, 24 August 2015

सुबह वो जो अखबार दे जाता है

सुबह वो जो अखबार दे जाता है
बड़े से पन्नों का
इक गठ्ठर बना के फेंक जाता है

शाम को जब मैं आता हूँ
कमरे में उसे वहीं पाता हूँ
हर रोज़ सुबह
वो जिस जगह फेंक जाता है
उस जगह कोई चोर नहीं आता
मैं थका-हारा आता हूँ
दिन भर की थकान
उसपे ही मिटाता हूँ
उसे मोडता हूँ, ममोडता हूँ
जो चाहे दिल की करता हूँ
वो सब खामोश है सह लेता
अपने बिकने की कीमत है दे देता
बहोत कुछ सीखा हैं मैंने
फिर भी पढ के उसे बेचा है मैंने
जमाने सा मैं भी हो गया हूँ
वो जो करतें है जैसा मुझसे
अखबार को लौटा देता हूँ
हर शाम ऐसे दिल हल्का होता है
सुबह का अखबार
शाम को अपना होता है

सुबह वो जो अखबार दे जाता है
बड़े से पन्नों का
इक गठ्ठर बना के फेंक जाता है

नितेश वर्मा और अखबार।


Sunday, 23 August 2015

अपनी वो लिखीं लाईन

उसको मुस्कुराकर मेरी बातों को टालने की आदत हो गयी थीं। जब भी मैं कोई बात करता, वो टाल जाती। आखिर कब तक ऐसे चलता एक रोज़ ये सोच कर मैं उसके पास एक धमकी भरा माहौल लेकर पहुंचा की अगर तुम्हें मेरी बातों का जवाब नहीं देना, तो ठीक है अब मैं ये बातों का सिलसिला भी बंद ही कर देता हूँ, लेकिन हर बार की तरह इस बार भी वो मुझसे एक कदम आगे निकली। जवाब सुनकर यकीन नहीं हुआ के अब वो मुझसे मिलना ही नहीं चाहती, हर बार की तरह इस बार भी मेरी आवाज़ गले में रह गयी।
फिर अपनी वो लिखीं लाईन बरबस याद आ गई - आपको अपनी आवाज की पहचान तब होती है, जब आप खामोश होते हैं।

शायद इसी वक्त के लिये राहत इंदौरी ने ये शे'र लिखा हैं -
उसने ठीक ही किया मुझसे किनारा करकें
फैसला मैंने किया था कि छोड़ दूँगा उसे।

नितेश वर्मा

बिल्कुल हिन्दुस्तानी

उसको गाँव से शहर पढ़ने के लिए एक ढलान उतर के जाना होता था। कभी-कभी जब नयी प्रेमी युगल के लिए बारिश कोई रोमेंटिक सा मौसम लेकर आती तो उसे और परेशानी होती, यही कारण रहा था कि उसे अब तक ये बारिशें पसंद नहीं आयी थी। दरअसल उसे और लडकियों की तरह नखरे करना भी पसंद नहीं, चेहरा भींग जाये लेकिन सूट नहीं भींगना चाहिए; ऐसी ख्याल वाली लड़कियों से बिलकुल अलग थी वो।
मैं गाँव के इस ओर रहता था, इस बड़े से उच्च स्तरीय शहर में। जहाँ सब अपनी जिन्दगी की मशरूफियात में उलझे रहते थे, वक्त का तकाजा हुआ करता था। कोई बड़ा काम नहीं होता फिर भी व्यस्तता ऐसी की जां छोड़ने को तैयार ही नहीं होती थी।
दिन गुजरता था मैं उसके आने और जाने के इंतजार में हर सुबह-शाम उस टीले पर चला जाता। मुझे उसको यूं ही देखना बहोत अच्छा लगता था अगर दिल के एहसासों को पन्ने पर उतारा जा सकता, तो मैं वो एहसास आपको दिखा देता, जिसका ख्याल आज भी मुझे उसमें कितनी खूबसूरती से जिंदा किये रखा है।
अब समय बीत सा गया है, माहौल कुछ आगे निकल गया है, अब वो ढलान एक एक्स-प्रेस-वे का रूप ले चुका है। अब वहाँ बारिश की पानी रूकती नहीं। लड़कियों को अपने सूट की फिक्र नहीं होती। बेबाक होके लड़कियाँ अब घर से निकला करती है। लेकिन उस मौसम की बात ही अलग थी, लड़कियों की शोर जैसे बारिशों में एक अलग ही धुन पैदा करती थीं। लडके-लड़कियों की नजरें मिला करती थी, आँखों से प्यार की बातें होती थी, किताबों के गिराने-उठाने पर रिश्ते बनते थे। अब शायद ऐसा नहीं हो, क्यूंकि ना अब वो मौसम रह गये और ना ही वो अब हम। जमाना टेकनिकल हुआ हैं, और कुछ बातें, कुछ यादें भी, लेकिन दिल वहीं है आज भी, बिल्कुल हिन्दुस्तानी।

नितेश वर्मा

आँखों से आँसू ढल जाये तो अच्छा हैं

आँखों से आँसू ढल जाये तो अच्छा हैं
गुलाब के सूखनें से पहलें
किताब उठ जायें तो अच्छा हैं
तस्वीर उसकी किसी किताब में पडी हैं
कोई ये किताब ले के जाये तो अच्छा हैं
उसको याद करके रात गुजरती हैं
अखबारों सी कोई शाम हो जाये
तो अच्छा हैं
मुझे यकीन हैं बारहा के वो आऐगी
इस बात से पर्दा उठ जाये तो अच्छा हैं
आँखों से आँसू ढल जाये तो अच्छा हैं।

नितेश वर्मा

Saturday, 22 August 2015

जाने कौन सी बस्ती में सुबह नज़र आए मुझको

जाने कौन सी बस्ती में सुबह नज़र आए मुझको
मैं परेशां हूँ नींदों में भी अजीब डर आए मुझको

ये दीनार सौ दीनार बारहां झोली में आ गिरते है
शुक्र-ए-रहमत आँखों को ये हुनर आए मुझको

खून मेरे सिर कब तक रखता रहेगा वो जालिम
मौला किसी रोज़ तेरी कोई खबर आए मुझको

ये सियासत सिर्फ मशाल जलाने को रह गये है
फिर जाने पाँच साल कोई भी कहर आए मुझको

घबरा-घबरा के उठ जाता है ये दिल मेरा वर्मा
फिर माँगता दुआ बेखौफ ले लहर आए मुझको

नितेश वर्मा




Friday, 21 August 2015

मुझसे इतनी थीं मुहब्बत के कंगाल करके चली गयी

ज़िन्दगी हर बार मुझसे इक सवाल करके चली गयी
मुझसे इतनी थीं मुहब्बत के कंगाल करके चली गयी।

मैं अभ्भी रो लेता हूँ जी के यूं हल्के से घबरा जाने पर
नज़र तेरी कुछ ऐसी अज़ीब कमाल करके चली गयी।

टूट के बिखरा पडा हैं मेरी आँखों में तमाम चेहरा तेरा
कौन कह रहा था के तू मुझे हलाल करके चली गयी।

मुझको ये ग़म नहीं के मेरे घर कोई रौशनी नहीं वर्मा
शिकायत ये के क्यूं वो शहर बेहाल करके चली गयी।

नितेश वर्मा और वो चली गयी।

गाँव के मौसमों में अबके कहीं जाड़ थोड़ी हैं

गाँव के मौसमों में अबके कहीं जाड़ थोड़ी हैं
जुबां काँपे,तन सिहरें ओलों की मार थोड़ी हैं।

बूढ़े बरगद के पेड़ सारे घरों से काटें जाऐंगे
हमारे ही आँगन में दरख्तों की झाड थोड़ी हैं।

बस दो गली का फर्क है उसके मकाँ से घर
क्यूं जाये उस घर वहाँ हमारी ये यार थोड़ी हैं।

उसे सब नजानें क्यूं अखबार करने में लगे हैं
औंधे मुँह गिरीं हैं, ये कोई बलात्कार थोड़ी हैं।

किसने, कितनी, क्यूं ये अजीब चाल चली हैं
या खुदा! मुझमें ऐसी कोई हथियार थोड़ी हैं।

कितना कुछ हुआ उस रोज़ आँखों का वर्मा
अब नहीं होता ये आँखें उससे चार थोड़ी हैं।

नितेश वर्मा

सुबह उठकर फिर सब समेटने लगा

सुबह उठकर फिर सब समेटने लगा
रात ने कल फिर तन्हा कर दिया था
कुछ यूं लूटा था मेरे जिस्म से जमीर
जिंदगी ने मुझको अंधा कर दिया था।

नितेश वर्मा और जिंदगी

आसमां से इक बूंद चेहरे पर गिरा

आसमां से इक बूंद चेहरे पर गिरा
आँसू को मेरे फिर कतार मिल गई।

नितेश वर्मा और इक बूंद

जिन्दगी करती है कुछ करामात अपनी

बदल कर सब बातों से इक बात अपनी
जिन्दगी करती है कुछ करामात अपनी।

वो सहमी सी मेरे सीने से लग जाये कभी
हो किसी रोज़ ऐसी भी एक बरसात अपनी।

तेरे लबों पर भींगी सी ये लब ठहरें कभी
हो तुझसे कभी ऐसी मुलाकात अपनी।

समेट रहा हूँ हर रोज़ कई ख्वाब अपने
खुदा मिलेंगे तो करेंगे सवालात अपनी।

वर्मा परिशां करता है ये आफताब बहोत
जुगनूओं की भी आऐगी इक रात अपनी।

नितेश वर्मा और बात अपनी।

अन्दर ही अन्दर यूं मैं कई सवाल करता हूँ

अन्दर ही अन्दर यूं मैं कई सवाल करता हूँ
है कोई जिसका अभ्भी मैं ख्याल करता हूँ।

ढूंढता हूँ दरहो-हरम में जाकर हर पहर मैं
ऐसी है वो मूरत की मैं जी जंजाल करता हूँ।

कितने नाजों से उसकी जुल्फें संवरती रही
वो घसीटते है तो अभ्भी मैं बवाल करता हूँ।

कोई एहसास आज भी दिल में जगाती वर्मा
उसकी मुस्कुरानें पे मैं जां निढाल करता हूँ।

नितेश वर्मा और करता हूँ

शहर में अब हवाओं को चलनी चाहिए।

हो गयी है सांझ सूरज को ढलनी चाहिए
शहर में अब हवाओं को चलनी चाहिए।

भूख से तडपा माँ के आँचल में सो गया
सरकार को भी ये दौर बदलनी चाहिए।

वो तलबगार आज भी पत्थरें तोड़ता है
है ग़र कही दिल तो ये मचलनी चाहिए।

कब तक कहानी की शक्ल में जिंदा रहे
सूरत किसी आईने पे पिघलनी चाहिए।

खून से पूरा मकान रंगा हुआ है घर का
खंज़र मेरे हाथों से ये फिसलनी चाहिए।

वो बच्चा नज़र आता है हर बार मुझको
उसके याद में भी शाम जलनी चाहिए।

कुछ उसके हिस्से का दर्द बदल दूँ मैं
कोई तो ऐसी हिसाब निकलनी चाहिए।

मेरे आदत से परेशां है सारे मुझसे मेरे
वर्मा ऐसी है जुबान तो सँभलनी चाहिए।

नितेश वर्मा और चाहिए।

Monday, 17 August 2015

जीं चाहें जितना हंगामा बरपा के देख लो

जीं चाहें जितना हंगामा बरपा के देख लो
पर मुझे इक बार अपना बना के देख लो।

कोई शिकायत लब पे आके ठहर जाती है
चाहत के अपनी बाहों में बसा के देख लो।

मुहब्बत सौदे के बाज़ार से होके गुजरीं है
उसकी हाल को उससे छुपा के देख लो।

ताउम्र फासला रहा जिसके चेहरे से वर्मा
दिल कह रहा उसे अब भूला के देख लो।

नितेश वर्मा और देख लो।

जैसे के कोई ग़ज़ल रदीफ़, काफिये, बहर में उल्झा रहा

मेरी कहानियाँ जिन्दगी की ये कैसी सफर में उल्झा रहा
जैसे के कोई ग़ज़ल रदीफ़, काफिये, बहर में उल्झा रहा।

वो मुतमईन सा चेहरा, हर दर्द को सहकर भी वैसा ही है
उसके अंदर है कोई समुन्दर मैं इस कहर में उल्झा रहा।

उस मासूम से शख्स को बहोत बेवकूफ बनाया था मैंने
उसकी आँखों की बूंदें देखके मैं उस नज़र में उल्झा रहा।

यूं तो बहोत आशियां बनायीं और फिर भी बेघर रहें वर्मा
गाँव से कई बुलावे आये और मैं बडी शहर में उल्झा रहा।

नितेश वर्मा और उल्झा रहा।



Sunday, 16 August 2015

फलसफा ये है

फलसफा ये है
की जूझ रहा हूँ
जिन्दगी को हरा दूँ
कोशिशें कर रहा हूँ
खुद में टूट रहा हूँ
खुदा से भी रूठ रहा हूँ
जाने कौन सी किस्मत है
माथे दर्द ही रख रहा हूँ
क्या करू किससे कहूँ
आवाज़ लिये गले में ही
बरसों से सूख रहा हूँ
फलसफा ये है
की जूझ रहा हूँ

मिली थीं छोटी जिन्दगी
पहले तन्हा गुजारी
अब कोई साथ है
या कहो वो मेरी जां हैं
मेरे तीन बच्चे हैं
सब कितने अच्छे हैं
मुझे समझते है
मगर क्या हुआ है अब
समझ कुछ आता नहीं
कर्ज़ में हूँ सर से पैर तक
मगर किसी को भी
खुश ना कर सका
ये मैं देखता हूँ
जैसा मैंने कहा
वो अच्छे हैं
कुछ बोलते नहीं
मगर देख के ये
मैं टूट जाता हूँ
क्या कहूँ
के कितना रूठ जाता हूँ
अब हल्का कर रहा हूँ
उनको कुछ बड़ा कर रहा हूँ
कामयाब हो
वो और नायाब हो
इबादत कर रहा हूँ
सबकी सुन रहा हूँ
परवाह नहीं
कुछ तो अच्छा कर रहा हूँ
फलसफा ये है
की जूझ रहा हूँ।


नितेश वर्मा

Saturday, 15 August 2015

बहन अक्सर बड़ी होती है

बहन क्या होती हैं? बहन एक एहसास होती हैं, बहन वो नर्म सी ख्याल हैं जिसमें डूब के सारी थकान मिट जाती हैं, रक्षा-बंधन सबके दिलों के करीब होता हैं, हर भाई अपनी बहन के लिये वो एक दिन चुरा लेना चाहता हैं, हर बहन इस दिन को सजा लेना चाहती हैं, बहन और भाई कैसे भी हो एक-दूसरें में ही खुश हो जाते हैं। कुछ ऐसे ही ख्यालों को समेटने की कोशिशें की हैं, कविता शायद बन गयी हैं, सुनियेगा ज़रा।

बहन अक्सर बड़ी होती है
उम्र में चाहे छोटी हो
फिर भी ये बड़ी होती है
बहन अक्सर बड़ी होती है।

वो जानती है देर रात मैं आऊंगा
इसलिए सबसे चुप
दरवाजा खुला छोड़ देती है
आने पे मेरे हल्की आवाज़ होगी
पापा से बचाने को जगीं रहती है
मुझे अपने पीछे छिपाने को
कोई बात यूं ही बनाने को
बिन प्यास पानी पीने को
वो यूंही जगीं होती है
बहन अक्सर बड़ी होती है

मुझे देख कर मुस्कुराने को
मेरी गलतियाँ छुपाने को
बारिश में भींगी चप्पल
मुझसे बाहर खुलवाने को
अक्सर खड़ी होती है
शाम की गर्म चाय होती है
सर्द रातों की लिहाफ होती है
माँ की आधी एहसास होती है
बहन कितनी नकचढ़ी होती है
ऐसे ही दिल पे अडी होती है
बहन अक्सर बड़ी होती है

छुपा के कुछ बचाती है
नाजाने कबसे जमा करती है
मेरे खुशियों के खातिर
वो अपना गुलल्क तोड़ देती है
खुशियाँ ऐसे वो लूटा देती है
मेरे हर दर्द को मिटा देती है
मुझे परेशां देख रो देती है
कितनी बार जुल्फे सँभालते-सँभालते
खिलखिलाकर बिगाड़ देती है
बहन अक्सर हसीं होती है
बहन अक्सर बड़ी होती है

दूर जब मैं था बरसों उससे
घंटों फोन पे बातें करती थी
कभी हँसाती तो कभी रूलाती
हुई जब वो दूर मुझसे
दहलीज़ें बदली
रोई लिपट बहोत देर मुझसे
बहन अल्फाजों की श्रृंगार होती है
ख्यालों की बारात होती है
हल्की धुन पे जो चलें
खामोशी की आवाज होती है
फिर भी बेपरवाह होती है
अक्सर हम भाई की होती है
बहन अक्सर बड़ी होती है

कुछ भूल जाता है याद आ
कुछ मैं ही खुद भूला देता हूँ
वो अब भी इंतजार करती है
मेरे आने की राह देखती है
मुझे अब फुरसत कहाँ
उल्झा-उल्झा सा रहता हूँ
और वो वक्त की घड़ी होती है
कुछ भी हो यार
बहन अक्सर बड़ी होती है
बहन अक्सर बड़ी होती है।

नितेश वर्मा
A tribute to all loving sisters. :)

वो याद है पहली सुबह

वो याद है पहली सुबह
कैसे आँखें मींचे उठते थे
घर से बाहर एक शोर होती थी
झंडा सबके हाथ होता था
सर पर किसी किसी के
तिरंगा टोपी होता था
वो ही भरे थैले चाकलेटों का
इकलौता मालिक होता था

खूब उडाये, खूब लूटे थे
पतंगे काग़ज़ी
नारंगी, उजली हरी वाली
गुलाल कुछ चेहरों पर
तो कुछ हवा में बिखेरते थे
जाने कहाँ वो मौसम गयी
बच्चे घर में बड़े हो गए
तिरंगा संसद की हवा में
लहराते रहे, देख यही
वो दिन आज याद आते रहे

वो याद है पहली सुबह
कैसे आँखें मींचे उठते थे।

नितेश वर्मा

मेरे दिल की आवाज है तिरंगा

मेरे दिल की आवाज है तिरंगा
दुआओं भरी नमाज है तिरंगा।

सबकी जुबाँ पर बसती रही है
सुरों से सजी ये साज है तिरंगा।

बिन पंख के जी रहा हूँ फकत
मेरी जां मेरी परवाज है तिरंगा।

अरसों से सँभाली है मैंने वर्मा
रामराज्य की समाज है तिरंगा।

नितेश वर्मा और तिरंगा

नितेश वर्मा और ख्याल

[1]
ख्यालों में खो जाता हैं दिल कहीं
जब गाल पर हाथ जाता हैं कभी

[2]
ख्यालों को बे-आबरू करते हैं
आओ कुछ बद्दतमीज़ होते हैं

नितेश वर्मा और ख्याल

हाथों को लगाम दो थोड़ा कम लिखो

हाथों को लगाम दो थोड़ा कम लिखो
उसने मुझसे कहा है थोड़ा कम लिखो।

जो कुछ भी लिखो मुझसे ही लिखो यूं
अपने दिल की बात थोड़ा कम लिखो।

गैर के हिसाब से चल रहा है सबकुछ
रिश्तों की वजह ये थोड़ा कम लिखो।

मर जाऐंगे तो नसीब होगा आसमां ये
परिंदों की उड़ान थोड़ा कम लिखो।

बहोत प्यास छुपा के रक्खी है हमने
बादलों की आस थोड़ा कम लिखो।

ये कोई गुनाह है जो मुहब्बत हैं मुझे
वर्मा किताबी बात थोड़ा कम लिखो।

नितेश वर्मा और थोड़ा कम लिखो।

दो दिल ऐसे ही रहता है चुप चुप

सामनें मेरे आ के बैठीं है गुमसुम
दो दिल ऐसे ही रहता है चुप चुप।

नितेश वर्मा और दो दिल

Tuesday, 11 August 2015

रात ऐसे ही ढलता हैं मुझमें बेचैन होकर

सो जाते है अक्सर ख्वाब आँखों में लेकर
रात ऐसे ही ढलता हैं मुझमें बेचैन होकर।

मेरी ख्वाहिशों से उसको क्या मतलब हैं
चेहरा खुद साफ कर लेता हूँ मैं भी रोकर।

यकीन तो हैं इक दिन होंगे सब कर्ज़ में
जिनको कभी फिक्र ना रहा मुझे खोकर।

क्यूं नादानियों को यूं दुहराती हैं ज़िंदगी
वर्मा खफा हैं दिल दहरो-हरम में सोकर।

नितेश वर्मा और बेचैन होकर

हाल क्या हैं बिन तेरे

हाल क्या हैं बिन तेरे
ख्याल क्या बिन तेरे
खुद में उल्झा-उल्झा
मैं सवाल क्या बिन तेरे
पढ लूं मैं चुपके से
आँखों की
मज़ाल क्या बिन तेरे
हाल क्या बिन तेरे

के पता नहीं कहाँ ढूँढू
लापता मैं जहां ढूँढू
खबर आ गयी
इक नज़र में
बेनजर जो
मैं हर दफा ढूँढू
बदल के चाल बिन तेरे
चलूं क्या चाल बिन तेरे
हाल क्या हैं बिन तेरे
ख्याल क्या बिन तेरे

नितेश वर्मा और बिन तेरे।

Sunday, 9 August 2015

मुझे तुमसे हैं मुहब्बत

माँ के दिल में सदा रहता तू
मुझे तुमसे हैं मुहब्बत
क्यूं नहीं समझता तू
हौलें-हौलें हाथ को थामा था तूनें
दोस्ती का रिश्ता
कितनें प्यार से बांधा था तूनें
सबकी बातें समझ तू
करता हैं अपनें दिल की
मेरी मुहब्बत में बता
कमी कहाँ रही
सबसे न्याय की बातें करीं
मेरे हिस्सें से फिर क्यूं मुँह फेरी
तू सबसे हैं प्यारा
मेरे दिल का यारा
कहूँ तुझसे कैसे भी कुछ
लगता हैं हरदम कुछ रह गया यारा
एक ख्याल का मेरे ख्वाब तू
मेरी जिन्दगी की आस
मेरी एहसास तू
माँ के दिल में सदा रहता तू
मुझे तुमसे हैं मुहब्बत
क्यूं नहीं समझता तू

नितेश वर्मा और तू

बात सँभाल के कितना अच्छा हुआ

बात सँभाल के कितना अच्छा हुआ
दो घर बच गये कितना अच्छा हुआ।

वो बच्ची मुस्कुराती है भरे बाज़ार में
और कहीं सौदा कितना अच्छा हुआ।

किसी को भला मुझसे क्या मिला है
टूटा तारा लगा कितना अच्छा हुआ।

अभ्भी वो यूं बंद कमरे से है झांकता
चाँद जो खिला कितना अच्छा हुआ।

मुझे भी अब ये सुकून कहाँ है वर्मा
क्या कहें बात कितना अच्छा हुआ।

नितेश वर्मा और कितना अच्छा हुआ

ऐसे ही हर रोज़ इन दिनों को गुजार देता हूँ

ऐसे ही हर रोज़ इन दिनों को गुजार देता हूँ
काम ना मिले तो रात रस्ते पे गुजार देता हूँ।

यहाँ भूखा हूँ मैं घर का क्या हाल हुआ होगा
सोच के मैं भी सजदें में दुआ पुकार देता हूँ।

कोई ना समझे तो ना समझे मेरे दर्द ए आह
जब सबकी गलती को मैं ही सुधार देता हूँ।

बात जब हद से गुजरीं तो मुझे समझ आयी 
कंघन उसके हाथ का मैं भी उतार देता हूँ।

वो सो गया है अब उसे परिशां ना करो तुम
वर्मा ऐसी कोशिशों को मैं धिक्कार देता हूँ।

नितेश वर्मा और गुजार देता हूँ।

खामोश रही है नजाने कबसे जिन्दगी

खामोश रही है नजाने कबसे जिन्दगी
यही माँगी थी मैंने क्या रबसे जिन्दगी।

मुझे तो आसमां को बाहों में भरना है
शिकवा नहीं है कोई तुझसे जिन्दगी।

वो तो सबकी दुआओं में ही सुनता है 
बद्दुआ फिर कैसी उससे जिन्दगी।

मुझे भी इक पंख दो मेरे मौला अब
कब तलक यूं रहे आँखों से जिन्दगी।

हमको हमारा मकाँ चाहिए था वर्मा
उलझता यूंही रहा मैं सबसे जिन्दगी।

नितेश वर्मा और जिन्दगी

कुछ खामोशियों में डूबा है जहां

कुछ खामोशियों में डूबा है जहां
तो कुछ खामोश हम भी है यहां।

सोचें तुमको भी हर बार जिंदगी
बीते कोई रात बिन तेरे है कहाँ।


उस गली में हैं प्यार की बातें यूं
शिकवा के क्यूं नहीं हम है वहां।

पल-पल आँखों से निकलता रहा
आँसू जाने इतना रहता है कहाँ।

नज़र आता है मुझमें बंजर मुझे
कोई प्यासा ढूंढता पता है जहाँ।

वो मुझको छोड़ गया मुझमें वर्मा
दिल मुन्तशिर यूं कबसे है यहाँ।

[मुन्तशिर = बिखरा हुआ ]
नितेश वर्मा और है यहाँ

के जब तक जिंदा हूँ मैं इक पागल हूँ वर्मा

तो सुनों मेरी इन ख्वाहिशों को भी दबा दो
फिर मेरे मरने के बाद इनको भी जला दो।

के जब तक जिंदा हूँ मैं इक पागल हूँ वर्मा
चुप हो जाउँ तो फिर कहीं और दफना दो।

नितेश वर्मा और कहीं और

Wednesday, 5 August 2015

आज अचानक

आज अचानक तुम मिल गये तो जैसे सब कुछ फिर से नया हो गया। ऐसा लग रहा हैं जैसे सब अभी हाल में ही होके गुजरा हैं। अभी भी तो तुम थोडे भी नहीं बदले, वहीं बडी-बडी आँखें, पतला-सा शरीर और नाकों पे चढा गुस्सा। मैं क्या ये तो कोई भी नहीं भूल सकता। वैसे तुम कोई भूलानें वाली चीज थोडे ही ना हो, जो इक पल को याद आएं और फिर यादों से निकल गयें। वो याद हैं जब तुम मुझे देखते थें और मैं तुम्हें देखती थीं, अच्छा नाराज़ मत हो, तुम नहीं बस मैं तुम्हें देखा करती थीं और तुम्हारी नज़र जब कभी मुझपे आके ऐसी रूकती, तो तुम वो नजानें किस बेतरतीब तरीकें से मुँह बना के मुझपे गुस्सा दिखा दिया करते थें। पर मैं ना तो तुमसे उस वक्त नाराज़ हुआ करती थीं और ना ही आज इस बात को लेके बैठी हूँ, वो तो बात पे बात आयीं तो तुम्हें बस याद दिला दिया।

और आज देखों ना आज तो जब तुम मिलें तो मैं नहीं तुम मुझे देख रहें थें। घमंड नहीं कर रही हूँ और वैसे भी करूं तो इसमें बुरा क्या हैं, तुम्हारें जैसा हैंडसम लडका मुझें भरी इक भीड में देखें तो थोडा शोख बगाढनें का तो दिल हो ही जाता हैं। इक बात बताऊँ पर किसी को बताना मत मैं हर रोज फिर से कोई ना कोई बहाना करके घर से ठीक उसी वक्त तुम्हें देखने आ जाया करूंगी और तुम बस मुझें देख के आँखों ही आँखों में अपना प्यार जता दिया करना, मुझे तुमसे मुहब्बत हैं, लेकिन एक डर भी हैं। नजानें ये डर दिल से कब जाऐगा मैनें तो बरहाल कई बार कोशिशें भी की हैं पर तुम ही हो जो कि इनसे मुँह फेर लिया करते हो, लगता हैं मैं यूंही खतों-ख्यालों में गुजर जाऊँगी और तुम बस इन पन्नों में दबे रह जाओगें। इक शिकायत है और ये इक सुझाव भी अगली बार जब कभी मुझपे ऐसे नज़र चली जाएं तो कुछ का ना सही पर मेरी जुल्फों की थोडी तारीफ जरूर कर दिया करना, जो तुम्हारें जिक्र से ही नजानें कितनी बार बिगडा करती हैं, मुझसे तो नहीं संभलती शायद तुम्हारी बातों में मेरी तरह ये भी आ जाएं। एक बार कोशिश तो करके देखना, मुझसे जुडी हर इक चीज तुम्हारी होगी, हर इक चीज में तुम होगे उनपे बस इक तुम्हारा हक होगा बस तुम्हारा।

नितेश वर्मा और आज अचानक

उसको कुछ और ही कहना था

उसको कुछ और ही कहना था
यूं दर्दे-दिल को नहीं सहना था।

अब वो रोती हैं हर पहर बैठकें
ऐसे तो उसको नहीं रहना था।

हमने कब कहा हलक में जां हैं
आँखों को जब यूंही बहना था।

परेशां हैं तो खफा रहती है वो
तस्वीर मेरा जिसका गहना था।

मंजूर हैं हमें भी तू हर हाल में
वर्मा दुआओं में जिसे पहना था।

नितेश वर्मा और कहना था

थोड़ा-सा जिक्र..

कुछ लम्हों में गुजार दी थीं जिन्दगी मैंने आज उन लम्हों को तलाश रहा हूँ। कोई प्यास उसको भी था कोई दरिया मुझमें भी था। कभी कोई जिन्दगी थीं लेकिन आज बस इसकी कमी है। सफ़र कहीं रूकता नहीं वो बेचैन है बस.. और बस बेचैन लम्हों में ही रहता है। लम्हा-लम्हा ऐसा है जैसे कुछ कर्ज़ दिल ही दिल में बढता है।

नितेश वर्मा और लम्हा।

कोई शाम कोई पैगाम ले आया करे

कोई शाम कोई पैगाम ले आया करे
कोई जिन्दगी इस नाम ले आया करे

धूप की छाव तुम ठंडी सी शाम तुम
कोई जजबात से जाम ले आया करे

नितेश वर्मा और ले आया करे।

हवाओं का शोर है

हवाओं का शोर है
दिल ये तेरी ओर है
कुछ कहा नहीं तूने
मगर दिल तू चोर है

हाँ वहीं तक सफ़र
तेरे साथ करें
जां फलक तक तेरे
हम भी हर बार करें
मुझमें तू ही रहा
है हर बार सदा
कई बार कहा
दिल तू ही करार है
चैन लेके कहीं
दिल तू ही फरार है
हवाओं का शोर है
दिल ये तेरी ओर है

नितेश वर्मा और दिल

बात जब हिसाब से आगे निकल जाएं तो क्या होगा

बात जब हिसाब से आगे निकल जाएं तो क्या होगा
पत्थर उसके हाथ का मेरे सर होगा और क्या होगा

मुझको परवाह लगीं थीं उसकी उस जमाने में वर्मा
जिसकी जुबां पे अखबार था उससे प्यार क्या होगा

नितेश वर्मा और बिन मूड शायरी।

साथ दो कदम का वो सफ़र कितना अच्छा था

साथ दो कदम का वो सफ़र कितना अच्छा था
दोस्त तेरे साथ हर वो पहर कितना अच्छा था।

कभी जो आँखों में बसता था वो लम्हा सुहाना
हुआ परदेश कभी वो शहर कितना अच्छा था।

नितेश वर्मा और दोस्त

मित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।

‪#‎HappyFriendshipDay‬

क्यूं खामोश सी है वो ये तो उसे भी नहीं पता

क्यूं खामोश सी है वो ये तो उसे भी नहीं पता
आहें बेहिसाब है मगर दर्द हमें भी नहीं पता।

नितेश वर्मा और बेहिसाब दर्द।

कोई कभी गंगा में पाप धोता है

कोई किसी को कहाँ तक साथ लेकर चलता है
कोई कभी गंगा में पाप धोता है
तो कोई हाथ हवा में हिला के चलता है।

नितेश वर्मा और कोई

कुछ बात से कुछ बात तक

कुछ बात से कुछ बात तक
दिल मैं बेजुबाँ हूँ आज तक।

हारता हूँ तो तुझे थामता हूँ
लम्हा-लम्हा यूं जज्बात तक।

गुजरें है कुछ तेरे याद में ये
बहारें वो किसी बरसात तक।

बहोत पुराना जिस्म था वर्मा
जला मरकर वो यूं रात तक।

नितेश वर्मा और आज तक।