Sunday, 9 August 2015

खामोश रही है नजाने कबसे जिन्दगी

खामोश रही है नजाने कबसे जिन्दगी
यही माँगी थी मैंने क्या रबसे जिन्दगी।

मुझे तो आसमां को बाहों में भरना है
शिकवा नहीं है कोई तुझसे जिन्दगी।

वो तो सबकी दुआओं में ही सुनता है 
बद्दुआ फिर कैसी उससे जिन्दगी।

मुझे भी इक पंख दो मेरे मौला अब
कब तलक यूं रहे आँखों से जिन्दगी।

हमको हमारा मकाँ चाहिए था वर्मा
उलझता यूंही रहा मैं सबसे जिन्दगी।

नितेश वर्मा और जिन्दगी

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