Wednesday, 5 August 2015

थोड़ा-सा जिक्र..

कुछ लम्हों में गुजार दी थीं जिन्दगी मैंने आज उन लम्हों को तलाश रहा हूँ। कोई प्यास उसको भी था कोई दरिया मुझमें भी था। कभी कोई जिन्दगी थीं लेकिन आज बस इसकी कमी है। सफ़र कहीं रूकता नहीं वो बेचैन है बस.. और बस बेचैन लम्हों में ही रहता है। लम्हा-लम्हा ऐसा है जैसे कुछ कर्ज़ दिल ही दिल में बढता है।

नितेश वर्मा और लम्हा।

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