Monday, 24 August 2015

सुबह वो जो अखबार दे जाता है

सुबह वो जो अखबार दे जाता है
बड़े से पन्नों का
इक गठ्ठर बना के फेंक जाता है

शाम को जब मैं आता हूँ
कमरे में उसे वहीं पाता हूँ
हर रोज़ सुबह
वो जिस जगह फेंक जाता है
उस जगह कोई चोर नहीं आता
मैं थका-हारा आता हूँ
दिन भर की थकान
उसपे ही मिटाता हूँ
उसे मोडता हूँ, ममोडता हूँ
जो चाहे दिल की करता हूँ
वो सब खामोश है सह लेता
अपने बिकने की कीमत है दे देता
बहोत कुछ सीखा हैं मैंने
फिर भी पढ के उसे बेचा है मैंने
जमाने सा मैं भी हो गया हूँ
वो जो करतें है जैसा मुझसे
अखबार को लौटा देता हूँ
हर शाम ऐसे दिल हल्का होता है
सुबह का अखबार
शाम को अपना होता है

सुबह वो जो अखबार दे जाता है
बड़े से पन्नों का
इक गठ्ठर बना के फेंक जाता है

नितेश वर्मा और अखबार।


No comments:

Post a Comment