Tuesday, 11 August 2015

रात ऐसे ही ढलता हैं मुझमें बेचैन होकर

सो जाते है अक्सर ख्वाब आँखों में लेकर
रात ऐसे ही ढलता हैं मुझमें बेचैन होकर।

मेरी ख्वाहिशों से उसको क्या मतलब हैं
चेहरा खुद साफ कर लेता हूँ मैं भी रोकर।

यकीन तो हैं इक दिन होंगे सब कर्ज़ में
जिनको कभी फिक्र ना रहा मुझे खोकर।

क्यूं नादानियों को यूं दुहराती हैं ज़िंदगी
वर्मा खफा हैं दिल दहरो-हरम में सोकर।

नितेश वर्मा और बेचैन होकर

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