गाँव के मौसमों में अबके कहीं जाड़ थोड़ी हैं
जुबां काँपे,तन सिहरें ओलों की मार थोड़ी हैं।
बूढ़े बरगद के पेड़ सारे घरों से काटें जाऐंगे
हमारे ही आँगन में दरख्तों की झाड थोड़ी हैं।
बस दो गली का फर्क है उसके मकाँ से घर
क्यूं जाये उस घर वहाँ हमारी ये यार थोड़ी हैं।
उसे सब नजानें क्यूं अखबार करने में लगे हैं
औंधे मुँह गिरीं हैं, ये कोई बलात्कार थोड़ी हैं।
किसने, कितनी, क्यूं ये अजीब चाल चली हैं
या खुदा! मुझमें ऐसी कोई हथियार थोड़ी हैं।
कितना कुछ हुआ उस रोज़ आँखों का वर्मा
अब नहीं होता ये आँखें उससे चार थोड़ी हैं।
नितेश वर्मा
जुबां काँपे,तन सिहरें ओलों की मार थोड़ी हैं।
बूढ़े बरगद के पेड़ सारे घरों से काटें जाऐंगे
हमारे ही आँगन में दरख्तों की झाड थोड़ी हैं।
बस दो गली का फर्क है उसके मकाँ से घर
क्यूं जाये उस घर वहाँ हमारी ये यार थोड़ी हैं।
उसे सब नजानें क्यूं अखबार करने में लगे हैं
औंधे मुँह गिरीं हैं, ये कोई बलात्कार थोड़ी हैं।
किसने, कितनी, क्यूं ये अजीब चाल चली हैं
या खुदा! मुझमें ऐसी कोई हथियार थोड़ी हैं।
कितना कुछ हुआ उस रोज़ आँखों का वर्मा
अब नहीं होता ये आँखें उससे चार थोड़ी हैं।
नितेश वर्मा
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