Tuesday, 4 July 2017

यूं ही एक ख़याल सा - युसूफ़ बिन ज़ुलेख़ा

अब, आसमान से गिरूँगी तो खज़ूर में अटका देंगी क्या?
जो आसमान से गिरते है ना वो खज़ूर से दूर नहीं भागते.. अग़र खज़ूर से दूर भागोगी ना.. तो सीधे आसमान से ज़मीन पर पटक दी जाओगी।
अग़र इक तरफ़ कुआँ और दूसरी तरफ़ ख़ाई हो तो कुएं को पसंद करके कूद लेने को कह रही है आप?
-बीबी, हमारे अब्बा कहा करते थे -मौत और बीमारी में से किसी एक को चुनना हो.. तो चाराग़र की बात मानकर हमें बीमारी को हँसते-हँसते सीने से लगा लेना चाहिए।
बीमारी भी तो आपको मौत तक ही ले जायेगी आख़िर में.. तो फ़िर मौत क्यूं नहीं? क्यूं हर रोज़ तिल-तिल करके मरना, घुटन में जीना फ़िर एक दिन सारे झंझटों से बड़ी ख़ामोशी से दूर चले जाना?
-बीबी! ज़िंदगी अग़र बेकार हो जाये ना तो उसे संवारने की कोशिश करते है.. अग़र ज़िंदगी के दामन से हाथ झटकोगी, तो मौत भी तुमसे बेवफ़ा हो जायेगी। ज़िंदगी अग़र दर्द लेकर आये तो भी ज़िंदा रहते है पता ना कब ख़ुदा की मर्ज़ी चले और ज़िंदगी बागों-बहार ले आये।
तो आप चाहती है कि, मैं आपका कहा मानकर कुएँ में कूद जाऊँ, वो भी तमाम उम्र उस शख़्स के साथ जिसे बात तक करने की सलाहियत नहीं है।
-अपने बाप का भ्रम रख ले आवारा लड़की.. जो तुम्हारे ज़ुबान को अपना समझकर उनको रिश्ता दे आये है।
हरगिज नहीं! मैं कोई कुर्बानी की ख़ाल नहीं जो जिसे जी में आया चोरी-चुपके से लगा भेजा। अम्मी, मैं भी नूर मुहम्मद की बेटी हूँ.. वो भी सोलह आने उन्हीं की तरह ढ़ीठ.. अग़र वो ज़िद पर उतरे ना तो मैं भी आसमान से सीधे ज़मीन पर गिर जाऊँगी, हड्डियां तुड़वा लूंगी मग़र कुएं में गिरकर ख़ुदकुशी नहीं करूँगी.. कभी नहीं!
-हाहा हाहा! तुम आसमान से ज़मीन पर गिरने का मतलब ये समझती हो? तो लानत है मुझपर जो मैं तुम्हें ये भी बता ना सकीं कि आसमान से सीधे ज़मीन पर पटक देने का क्या मतलब होता है। एक रात बड़े देर से तेरे अब्बा घर आए, मैंने पूछा- सब ठीक, इतनी देर कहाँ लगा दी।
तो कहने लगे- हाज़रा, जब लड़कियाँ बिग़ड जाती है ना तो उसे एक अधेड़ उम्र के मर्द से बांध दिया करते है.. वहीं देखकर आ रहा हूँ।
-इस मामले से मेरा क्या मतलब? मैं कौन सा बिगड़ी जा रही हूँ.. मैंने सीधी बात कही है, हाँ थोड़ी कड़वी ज़रूर है.. मग़र कुछ छिपाया तो नहीं ना। ना कोई शर्मों-हया के पर्दे दिखाएँ, ना कोई चेहरे पर झूठा लिबास ओढ़ा.. सफ़ेद चोग़ा नहीं ड़ाला, जो भी बात कही ख़री कही, कोई पाखंड नहीं रखा और अम्मा दिल से साफ़-साफ़ कही हुई बातें उसे आसमान से ना तो ख़जूर में अटकाते हैं और ना ही ज़मीन पर पटकते है कभी।
-बीबी! तज़ुर्बा तुमसे कई ज्यादा रखती हूँ, इसलिए एक बात रख देती हूँ तुम्हारे सामने.. तुम्हारी ही तरह बिलकुल खोलकर, बिना किसी शर्मो-हया-लिहाज़ के.. शादी तो तुम्हारी वाहिद अहमद से ही होगी। बीबी नाम ज़ुलेखा हो जाने भर से तुम ये ख़्वाब मत देखो की किसी रोज़ युसूफ़ भी तुम्हारे ज़िंदगी में आकर तुम्हें इन सब अज़ाबों से बचा ले जायेगा। भूलना मत यहाँ मौलवी नूर मुहम्मद का राज़ चलता है।
आप बताएँ ना अब्बा को की आपने उसकी शादी अग़र वाहिद अहमद से करने की कोशिश की तो निक़ाह-ए-इक़बाल में ज़ुलेख़ा नहीं उसकी लाश बैठेगी।
-अरे जाओ! उन्हें तो ये भी कबसे मंज़ूर है.. बल्कि बात ये है कि उन्होंने ख़ुद कहा था कि अग़र राज़ी हुई तो ठीक वर्ना उसकी लाश ही बैठेगी 15 फ़रवरी को। एक बार कह दिया.. तो बस कह दिया।
अम्मा! आप तो बड़े पर्देदारी-हयादारी की बातें किया करती थी.. घर के ख़्वातीनों की इज्जत उनके चारदीवारी में ही महफ़ूज रहती है.. चारदीवारी उनकी क़ैद के लिए नहीं उनकी आज़ादी के लिये होती है, यहाँ उन्हें किसी से ड़रने की कोई ज़रूरत नहीं होती, वो अपनी बात, अपनी आवाज़ उस चारदीवारी में बग़ैर किसी पर्दे के उठा सकती है और आज आप कह रही है कि अग़र मैं नहीं मानी तो मेरे लाश को निक़ाहनामें में शामिल करवा देंगी।
-अच्छा, चल! मैं लड़ जाऊँगी तेरे अब्बा से। तू बता.. दो थप्पड़ों में हार तो नहीं मान लेगी ना.. बाप के इमोश्नल अत्याचार पर तरस तो नहीं खायेगी ना या वो मुझे बालों से घसीट कर बेडरूम में लताड़ते हुए ले जाये तो मुझपर कोई तरस नहीं खायेगी ना? बता अग़र मंज़ूर है तो मैं तुझे इज़ाजत देती हूँ.. जा जी ले अपनी ज़िंदगी अपने युसूफ़ के साथ।
रोना तो इसी बात का है अम्मा, इस ज़ुलेख़ा के नसीब में कोई युसूफ़ है ही नहीं।
-क्या?
हाँ! अब कहाँ तलाशू युसूफ़ को.. आप कोई सेकैंड आप्सन नहीं ला सकती?
-हाय! दिमाग फ़िर गया है तेरा लड़की.. शादी में कोई सेकैंड आप्सन नहीं होता जब सवाल के ज़वाब आते हैं ना तो बच्चे MCQ नहीं खेला करते। ज़ुलेख़ा ज़वाब ढूंढ, आप्सन अपने बाप पर छोड़ दे।
वो तो मेरी जान ही निकाल लेंगे।
-अरे! ड़र मत.. नूर मुहम्मद ने अभी तक हाज़रा बेग़म की ख़िदमते और लाचारी देखीं है, दूसरा रूप नहीं देखा। अच्छा! ये बता जब निक़ाह की बात हो रही थी तो तू चाय रखकर क्यूं शर्मा के भाग गयी थी?
हाय! अम्मा, उसे आप शर्मा के भागना कहती है.. मैं तो कुढ़-कुढ़ के आधी हो रही थी तो उठ के भाग आयी। कितने ज़ाहिल इंसान है, रिश्ता पक्का कर दिया ये समझकर।
-ज़ुलेख़ा! ख़बरदार.. जो मेरे तरबियत पर अब कोई उंगली उठाईं, मैं ये हरगिज बर्दाश्त नहीं करूँगी।
अम्मा मेरा वो मतलब बिलकुल नहीं था।
-अच्छा-अच्छा! ठीक है।
अम्मा! एक बात बताऊँ आप अब्बा को ये बता देंगी?
-अब कौन सी नयी बात है जो तेरे अब्बा को नहीं पता?
है अम्मा.. एक बात है।
-उगलो.. डकार दूंगी जाकर, कुछ रौब तो झडेगा उनके आस्तीन से।
अम्मा थोड़ी ढिठाई से बताना.. ताक़ी मुझे अपने शौहर को अपनी बेटी ब्याहते समय ना बताना पड़े कि- आज की लड़कियाँ शादी का सुनकर शर्मा के नहीं भागा करती और वो भी ख़ामोशी से झुंझलाते हुए निकलकर भागे तो इसका मतलब ये निकालना चाहिए कि लड़की ने लड़के पर इंकार जताया है.. तब उसके अब्बा को उनसे रिश्ता बढ़ाने की नहीं उनके सामने माज़रत जता के उन्हें रूख़सती करने की होती है।
-अरे शाबाश! ये हुई ना बात। अब लग रही है तू हाज़रा बेग़म की औलाद.. जब बेटी का टका सा ज़वाब सुनेंगे ना तो जो आँखें गुरेरकर मेरे बाल घसीटकर मुझे थप्पड़ मारेंगे तो यक़ीन मानो ज़ुलेख़ा तब तुम्हारे अब्बा की बेबसी को देखकर बड़ा सुकून मिलेगा दिल को.. अग़र मुँह उनके मार से ना फ़ूटा हुआ होगा तो उन्हें हँसकर कहूंगी- मौलवी साहब! बेटी ने पल्ला झाड़ दिया है, अब तसबी उठाये और निकल पड़े वाहिद अहमद के घर पढ़ते हुए.. कमबख़्त! जान छूटे उस बला के पहाड़ से।

नितेश वर्मा
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