Tuesday, 4 July 2017

किसी चाँद रात तिमंज़िले मकान की खुली छत पर

किसी चाँद रात तिमंज़िले मकान की खुली छत पर
बहती ठंडी हवा के झोके के साथ यकायक
किसी ज़िक्र पर जब पूछ बैठेगी मेरी 22 पार होती बेटी मुझसे
कि आपके तमाम ख़याल में मुझे या मेरी माँ को
वो मुहब्बत नज़र क्यूं नहीं आती
जिसकी अक़ीदत वो बरसों से निभाती आयी हैं
जब पूछ बैठेगी वो मेरी हाथों में
अपनी नर्म उंगलियों को आहिस्तगी से रखकर
जब मेरी आँखों में झांककर ख़ंगालेगी दिल मेरा
ढ़ूंढ़कर जब वो छोड़ देगी तुम्हें
और मेरे उस सख़्त हाथों से उंगलियां अपनी
जब मुस्कुराकर वो पोंछ लेगी अपनी बहती आँसुओं को
मैं बढ़कर थाम लूंगा उसे अपनी बाहों में
और वो बेतहाशा देखेगी ख़ामोश मुझको
मैं चूम लूंगा सीने से लगाकर माथा उसका
और जब उससे मुँह मोड़कर चुप हो जाऊँगा
वो जब मुझे रोककर पूछेगी-
कौन नज़र आता है मुझमें पापा?
मैं क्या कहूँगा?
हैं कोई जवाब जो सार्थक कर दे मेरा उसका माथा चूमना
ये कहते हुए इसमें तेरी माँ की रक़ीब का साया है
वो फ़िर ये सुनकर जब वो तोड़ लेगी मुँह अपना फ़िर रात-भर छत पर बैठकर मैं उन्हें जोड़ता रहूँगा.. बेतहाशा।

नितेश वर्मा
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