कमबख़्त वो कितने अच्छे दिन थे
जब प्रेम ख़तों के ज़रिये होता था
जब तुम सिमट आती थी मेरी बाहों में
बिन नज़ाकत के बिगड़ैल होकर
जुल्फों को जब खोलकर लेट जाती
मेरे कांधे पर रखकर सर अपना
उंगलियां जब उंगलियों की गिरफ़्त में होती
ख़्वाब जब आसमान में चादर बुनते थे
तुम्हारे छत पर जब चाँद आ रूकता था
मुश्किल होता था मेरा दिल-ए-हाल वो
जब तुम मुस्कुराती मुझे देखकर चुपके से
मैं मर जाता था तुम पर अक्सर वहीं
तुम मुझमें धूप होकर बिखर जाती थी
अब याद अक्सर वो आँसू बनकर आते हैं
कमबख़्त वो कितने अच्छे दिन थे।
नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry
जब प्रेम ख़तों के ज़रिये होता था
जब तुम सिमट आती थी मेरी बाहों में
बिन नज़ाकत के बिगड़ैल होकर
जुल्फों को जब खोलकर लेट जाती
मेरे कांधे पर रखकर सर अपना
उंगलियां जब उंगलियों की गिरफ़्त में होती
ख़्वाब जब आसमान में चादर बुनते थे
तुम्हारे छत पर जब चाँद आ रूकता था
मुश्किल होता था मेरा दिल-ए-हाल वो
जब तुम मुस्कुराती मुझे देखकर चुपके से
मैं मर जाता था तुम पर अक्सर वहीं
तुम मुझमें धूप होकर बिखर जाती थी
अब याद अक्सर वो आँसू बनकर आते हैं
कमबख़्त वो कितने अच्छे दिन थे।
नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry
No comments:
Post a Comment