Tuesday, 4 July 2017

इस सफ़र में मैं अकेला रहा

इस सफ़र में मैं अकेला रहा
जिसमें मंज़िल कहाँ थी
पता नहीं!
जाना था कहाँ, ठहरना कहाँ?
पाना था क्या, छोड़ना क्या?
भूख लगती थी.. फ़िर मर जाती थी
हर गली में ग़रीबी फ़िर करना क्या?
रात रस्तों के चादर पर गुजारी मैंने
मकाँ में चाँद की झीनी रोशनी ढ़ले
कमरे में क़ैद होकर आसमां देखना क्या?
पत्थर के इमारत पर मंज़िल का पता था
ख़नकते सिक्कों संग मेरा बदलना क्या?
ख़्वाहिशों में कई रात थी बीती मेरी
दिन के उजालों में.. फ़िर डरना क्या?
मैं टूट चुका था इतना के बयान ना हुआ
इतिहास में बेवज़ह फ़िर सिमटना क्या?

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

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