Tuesday, 4 July 2017

पाँच सिक्कों का मोहताज़

पाँच सिक्कों का मोहताज़
हर रोज़ धूप में कढ़ता है
बदन लिबास से लपेटकर
बारिश से जब वो लड़ता है
शाख़ दरख़्त से टूटकर यूं
रिश्तों से जब वो छूटता है

जब धूल उसके पैर से लग
उसके पसीने से मिलता है
इस फ़साद में ख़ुदग़र्ज़ वो
ख़ुदसे ही बहुत झगड़ता है
चाँद जब ठंडी रोटी होकर
उतरती है उसके थाली में
क़िताबें भी बोल पड़ती हैं
वो उनको इतना पढ़ता है

जो सुब्ह स्याह सी होती है
वो रात से गिला करता है
पाँच सिक्कों का मोहताज़
हर रोज़ धूप में कढ़ता है।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

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