Tuesday, 4 July 2017

अभी आधे रस्ते में हूँ मैं

अभी आधे रस्ते में हूँ मैं
आँधियों-धूल के बीच
मंज़िल तक जो जाना था मुझे
पैदल चलना ज़रूरी था
उस मोड़ पर ठहरकर
इक आग जलानी थी
रोशनी देनी थी उस अंधेरे को
वो कमरा जो उदास था
जिसमें कई शख़्स अधमरे थे
दीवार तोड़नी थी वो खोखली
खिड़कियों से चादर हटानी थी
सर्द रातों में जो निकलना था
पैदल चलना ज़रूरी था
बिगड़ती ज़ुल्फ़ों को समेटकर
दुपट्टे में क़ैद करना था
बोझ सर पर रखकर मुझे
मीलों दूर बेसबब दौड़ना था
पढ़ना था उस मुश्किल ख़त को
जो दराज़ में अरसों से बंद था
ज़वाब देनी थी मुझे तमाम
बारिशों पर बहुत बिगड़ना था
पैदल चलना ज़रूरी था।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

1 comment:

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