मुझपर कई ज़ुल्म हुए थे मैंने देखा इक रात
उधेड़ कर ज़ख़्मों को मरहम मला कई बार
भीचकर आँखों को.. ख़्वाबों को नोंच डाला
रिहा कर ख़ुदको चल पड़ा पगडंडी सहारे
हमदर्दी से या माँग कर पेट भरी कई पहरे
लानत बरसते आसमान से बरसी थी मुझपे
दुनिया जब सारे ग़म मेरे हिस्से में रख गयी
जब आदम ये शरीर बोझ से दुहरा हो गया
जब आँसुओं से मेरा घर-आँगन भर गया
कुछ नहीं कहना बना था जो इसके सिवाय
मौहलत मिली तो फ़िर लौटकर पूछूँगा ये
आख़िर क्यों हुआ था ये सब कुछ मेरे साथ
मुझपर कई ज़ुल्म हुए थे मैंने देखा इक रात
उधेड़ कर ज़ख़्मों को मरहम मला कई बार।
नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry
उधेड़ कर ज़ख़्मों को मरहम मला कई बार
भीचकर आँखों को.. ख़्वाबों को नोंच डाला
रिहा कर ख़ुदको चल पड़ा पगडंडी सहारे
हमदर्दी से या माँग कर पेट भरी कई पहरे
लानत बरसते आसमान से बरसी थी मुझपे
दुनिया जब सारे ग़म मेरे हिस्से में रख गयी
जब आदम ये शरीर बोझ से दुहरा हो गया
जब आँसुओं से मेरा घर-आँगन भर गया
कुछ नहीं कहना बना था जो इसके सिवाय
मौहलत मिली तो फ़िर लौटकर पूछूँगा ये
आख़िर क्यों हुआ था ये सब कुछ मेरे साथ
मुझपर कई ज़ुल्म हुए थे मैंने देखा इक रात
उधेड़ कर ज़ख़्मों को मरहम मला कई बार।
नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry
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