Thursday, 31 July 2014

..झूठा लगता हैं..

..दिखाया जो सपना मैनें सब झूठा लगता हैं..
..करते हैं बच्चें सवाल जीना अब झूठा लगता हैं..

..किसी अंज़ान मोड पे जाकर वो जो मिलता हैं..
..कहते हैं सब खुदा जिसे शख्स झूठा लगता हैं..

..अब मैं ही मेरे तौहीन ही क्या माफी करूँ..
..बिगडा हूँ, कमज़र्फ़ नहीं कहना झूठा लगता हैं..

..सारी अदावतों को संभाल के जो रक्खा था मैनें कभी..
..उसने माँगा जो हिसाब-ए-किताब दिखाना झूठा लगता हैं..

..कह के बस अब तडप उठता हूँ हर-वक्त मैं..
..मनाना था जिसे मुहब्बत में अब झूठा लगता हैं..

..कैसी-कैसी उल्झनें हैं इस ज़िन्दगी में अब वर्मा..
..जिन्दगी अच्छी ना हो तो मौत झूठा लगता हैं..

..नितेश वर्मा..

..कैसे कहतें हैं लोग के हमपे मरते हैं लोग..

..कैसे कहतें हैं लोग के हमपे मरते हैं लोग..
..दिन गुजर जाता हैं और रात करते है लोग..

..पूछा जो मैनें नसीब चौराहें के फकीरों से..
..वो हतप्रभ आज भी इनपे यकीं करते हैं लोग..

..नितेश वर्मा..

..आएं हैं..

..अँधेरों में जो रहकर हम चलें आएं हैं..
..लोग कहतें हैं कैसे ये हम कर आएं हैं..

..वहाँ तो बस खुदा का हुक्म हैं चलता..
..आप अपनी मर्ज़ी रखकर कैसे आएं हैं..

..पूछतें हैं अब हर राहीगार जाने का पता हमसे..
..जैसे खुदा को हम अपना दोस्त  करके आएं हैं..

..बहोत बदहाली में था कुछ कैसे कहूँ मैं वर्मा..
..ज़िन्दगी थीं तकलीफ अँधेरों से कुछ सीख आएं हैं..

..नितेश वर्मा..

..लगी आग जो शाम परिंदे बंद हो गए दुकानों में..

..मिला जो मैं खाली अब भी था उसकी निगाहों में..
..शायद आसमान था कैसे पकड सकूं उसे बाहों में..

..परों को खोल के जो उडते रहें कुदरती बगानों में..
..लगी आग जो शाम परिंदे बंद हो गए दुकानों में..

..ख्याली-पुलाव बनातें रहें थें जो दिन के उजालों में..
..बढी पेट की जो आग लेके सपनें सो गए आँखों में..

..बतातें रहें थें ईमान मुझे जो लेके गिरेबान हाथ में..
..पूछा जो तख़ल्लुस मैनें शर्मंसार थें मेरे सम्मान में..

..लगे हैं सब यहाँ आलिशां घर बनानें की चक्कर में..
..परिशां थीं जो बच्ची मर गई रोटी चुन के खानें में..

..डर कही नहीं आती वर्मा अब हैं ही क्या ज़मानें में..
..देखना था जिसे बंद आँखें कर वो सोया हैं सतानें में..

..नितेश वर्मा..

Wednesday, 30 July 2014

..कमी दौलत की, आज़-तक रही इन आँखों में..

..कसक बचपन से जो थीं, इन काली आँखों में..
..कमी दौलत की, आज़-तक रही इन आँखों में..

..कभी भूलाया नहीं था जो पता तेरा, घर के दिल की यादों में..
..हसरत टूटती हैं लोग पूछतें हैं, लाचारी कैसी हैं इन आँखों में..

..कौन कहता हैं था मैं मुकरा, कभी मैं मेरे वादों से..
..मैं सोया रहा ख्वाबें जलती रही, बेबस इन आँखों में..

..बातें ही सिर्फ बातें थीं उसकी, जिकर मेरा ज़िल्द भर था कहाँ..
..कहता मैं कैसे उससे कुछ, गीला था ही कहा कभी इन आँखों में..

..तू जो करता हैं सियासत, सब हैं बदनाम पडे ना-जानें कैसे..
..अब कैसे कहूँ, बसे पडे हैं कैसे हिन्दु-मुस्लमां इन आँखों में..

..घर उजाडे जाऐंगे, ऐसे और भी ना-जानें कितनें वर्मा..
..बेबाक कहा था जो उसनें, दर्द आज़-तक रहीं इन आँखों में..

..नितेश वर्मा..


Tuesday, 29 July 2014

..तुमनें बुलाया होता..

..चले आतें किसी वक्त जो दिल से तुमनें बुलाया होता..
..खातिर तुम्हारें तो वक्त से भी रूसवा कर आया होता..

..मैं माँगता क्या था जो हर वक्त तुम उदास रहती थीं..
..उस उदासी से जो कहती तो मैं बिन बुलाए आया होता..

..मैं तुम्हारें बातों में गिरफ्त था होश क्या लगाया होता..
..तुम जो कहती मुझसे शाम-सबेरें मैं वो गुनगुनाया होता..

..हर दर्द को जो छुपाती रही थीं इक उम्र से जो तुम..
..इक उम्र गुजर गया बिन तेरे मैं कैसे मुस्कुरायां होता..

..तेरें लबों पे ना जानें कितनें बहानें कई सदियों से थें..
..झूठा ही सही मेरे नाम से कभी जुबाँ टकराया तो होता..

..रही-सही उम्र कैसे भी गुजार लो तुम मुहब्बत में क्या हैं..
..मुहब्बत से एक उम्र में रोता रहा तुम्हें क्या बताया होता..

..चले आतें किसी वक्त जो दिल से तुमनें बुलाया होता..
..खातिर तुम्हारें तो वक्त से भी रूसवा कर आया होता..

.नितेश वर्मा..

..नाराज़ शाम..

मन बेचैंन सा हैं.. जैसे कोई गहरी प्यास लगी हो.. राहत की कुछ-एक साँसें भी अब दुर्लभ हो.. कैसा मौसम हो गया हैं। शामें भी अब सवर के आती नहीं ज़िन्दगी मुहाल जैसे बदसलूकी को प्रदर्शित करती हो। अब तो कमरें के ए.सी., पंखें भी उदास करतें हैं। विलासता ज़िन्दगी को अब घृणित करती हैं.. मन सकुचाया सा रहता हैं। अंधेरें कांटने को दौडते हैं सूरज की डूबती चमक आँखों में इक जलन भरतें-भरतें डूबती जाती हैं जैसे कोई नाराज़गी.. कोई दर्द.. जो बिन मरहम तडपतें रहे है ना जानें कबसे और किस इंतज़ार में ठहरें थें.. आज़ खुल के बरसनें को जो तैयार हुएं थें।

शायद मौसम की गर्मी बढ रही हैं। शायद दिन भर घर-दफ्तर करनें से ऐसा हो गया हो। शामें भी नाराज़ लगती हैं। अब तो घर से निकल के देखना ही चाहिएं क्या मौसमों में भी अब वो बात नहीं। लेकिन हवाएं आज़ भी तो वैसी ही चल रही हैं जैसे कभी जब मैं अपनें दोस्तों के साथ किसी हाईवे, किसी बिच या किसी खुलें मैदान में महसूस किया करता था। उन हवाओं के संग उड के कहीं और जानें की जिद.. क्यूं आज़ सब यादें बनकर चुभती हैं। क्या ज़िन्दगी अब बस विवश्ता का नाम होकर रह गयी हैं। पैसे छापनें, बेचने, कमानें, मतलब मुशक्कत में ही रहना रिवाज हो गया हैं। दिल कबसे और ना जानें कब-तक बेचैंन हो कुछ कहा जानें जैसा कुछ भी तो नहीं। राज़ें भले से बदल गए हो तस्वीर मगर आज़ भी वही पुरानी हैं।

हवाएं रूहानी हैं अब भी सुकूँ देती हैं। ताज़गी भरना तो जैसे उनका प्रचलन हैं। वही औपचारिकता, वही वंदिता, वही बात, वही समाज सब तो वही हैं। दिल या मन जो कहो शायद बदला-बदला सा, अब कही सुख नहीं चैंन नहीं। सिर्फ एक नाराजगी जो आज़ भी शामों में बखूबी नज़र आती हैं। जमाना आगे बढ गया हैं मगर रूह को जो सुकूँ दे वो तिलिस्म आज तक अंजान हैं। मन जब उदास हैं शामें भी नाराज़ हैं। उदासीनता शब्दों में नहीं कही जा सकती सिर्फ और सिर्फ इन्हें महसूस किया जा सकता हैं। परेशानियाँ भी बदलतें रूप का हल देती हैं।

..नाराज़ शामें हैं कोई दिल से मेरा पता पूछों..
..मेरी ख्वाहिशों में जो हैं उसे सुकूँ का रास्ता पूछों..

..नितेश वर्मा..



..अब-तक गया नहीं..

..भूल गया हैं ना जानें कैसे वो चेहरा मेरा..
..कमरें के आईनें से जो अब-तक गया नहीं..

..बुलाता हैं हर शाम मेरें यादों का तिनका जिसे..
..कह दे जा के उसे दिल से वो अब-तक गया नहीं..

..मैं डूबा रहता हूँ अब भी किसी वादों पे उसके..
..कहा था जो उसनें होंठों से अब-तक गया नहीं..

..लो कर ली मैनें भी जब्त तुम्हारी ज़ज्बातों को..
..कहतें थें जो तुम देखों दिल से वो अब-तक गया नहीं..

..जिसकी यादों में गुजरी ये तमाम उम्र जिन्दगी हमारी..
..समेट के देखा जो उसे चेहरा था जो अब-तक गया नहीं..

..नितेश वर्मा..

Monday, 28 July 2014

..आया हैं कोई..

..मेरे हर दर्द पे मरहम लगानें आया हैं कोई..
..ईद बताया हैं आज़ लगानें गले आया हैं कोई..

..जो होता हैं क्या अपना दिखानें आया हैं कोई..
..मेरे सवालों को दिल से लगानें आया हैं कोई..

..चूमतें हैं हर सज़दे पे दर जाकर जिनका आया हैं कोई..
..मुझे खुद से मिलनें का रस्तां दिखानें आया हैं कोई..

..फैलती हैं हर दिशा में नूर जिसका आया हैं कोई..
..तू मेरे ही अंश का हैं समझानें यह आया हैं कोई..

..इबादतों में ही जब थक जाता हूँ कैसे ना कहूँ आया हैं कोई..
..मिलना हैं जिससे खडा हैं वो दूर बहोत दिखानें आया हैं कोई..

..अब सुकूँ का सस्ता मकाँ होता हैं कहाँ यहाँ वर्मा..
..मिलना था जिससे ता-उम्र..
..मौत तक वो ज़िन्दगी दिखानें आया हैं कोई..

..नितेश वर्मा..


..ये भींगी-भींगी सी शमां रहनें दो..

..ये भींगी-भींगी सी शमां रहनें दो..
..मुझे खुद से जुदा अब रहनें दो..
..मैं चाहता हूँ हो इक घर मेरा..
..मुझे दिल में उसके रहनें दो..

..ये बातें, ये रातें..
..ये शबनमीं शामें..
..उलझें हैं जिसके जुल्फ़ों में..
..अब हो जानें दे..
..कैद आँखों में उसे जरा..
..हो जानें दे आवारा मुझको जरा..
..ले चला हैं दिल जिस कदर..
..किस डगर..
..होंठों पे उसे मेरे अब रहनें दो..
..ये भींगी-भींगी सी शमां रहनें दो..
..मुझे खुद से जुदा अब रहनें दो..

..नाराजगीयाँ, बर्बादीयाँ..
..जिस्मों में लगी हैं शादियाँ..
..उल्फत हैं जैसे इक कसक..
..मेरें आँखों में हैं तेरी वादियाँ..
..आ भर ले तू बाहों में मुझको..
..हो इस कदर कुछ कम ये दूरियाँ..
..इस ख्बाब में मुझे रहनें दो..
..ये भींगी-भींगी सी शमां रहनें दो..
..मुझे खुद से जुदा अब रहनें दो..

..शीशें-सा हो जो चेहरा तेरा..
..बातों पे हूँ मैं ठहरा जरा..
..मुझे दिल की बातें करनें दो..
..हो जब ये मुक्कद्दर..
..तो दर्द ये सहनें दो..
..मेरे आँखों में उसे रहनें दो..
..ये भींगी-भींगी सी शमां रहनें दो..
..मुझे खुद से जुदा अब रहनें दो..!

..नितेश वर्मा..

..तू खुदा बन जा वर्मा तुझे क्या हुआ था..

..बहोत परेशान हुआ था इसलिए चुप हुआ था..
..किसी से कुछ कहता क्या इसलिए रूत हुआ था..

..सुनतें थें लोग बहोत बातें मेरी..
..बातों में मेरें ऐसा लगा क्या हुआ था..

..ज़मानें से किसी को शिकवा हो तो कहों..
..मगर अपनों में तुम्हारें रक्खा क्या हुआ था..

..बातें मनवातें मैनें देखें थें जो लोग बहोत..
..अक्सर शामें वो तन्हा क्यूं हुआ था..

..गुजर के जानें की कोई बात ही नहीं..
..एहसास ही सनम ऐसा क्या हुआ था..

..अब जब सुनातें ही हैं सब रोग अपना..
..तू खुदा बन जा वर्मा तुझे क्या हुआ था..

..नितेश वर्मा..




Friday, 25 July 2014

..मेरी बिटियां..

क्यूं परेशानियाँ, अपराधें, बकवासें सब ये लडकियाँ सुनें। क्यूं आखिर वो अबला का धब्बा अपनें सर मढ कर उसे ता-उम्र झेंलती रहीं। बदलाव लातें हैं सब..
सारी पार्टियाँ..
जितनी समाज़ उतनी बकवास कोई काम का नहीं निकलता।
कभी बलात्कार तो कभी दंगों का शिकार क्या यहीं तक सिमट के रह गई हैं हम और हम लडकियों की ज़िन्दगीयाँ। क्या हमारी कहानी बस इतिहास के पन्नों में सज़ानें मात्र हैं? हमारें दुखों को दिखानें मात्र हैं? क्या हमारी कोशिशें नाकामयाबियाँ की जुबाँ बोलेगीं। क्यूं हम सिर्फ दया, आत्मीयता और गंभीरता का रूप लें। क्या लडकियों के ज़िन्दगीयों के कोई मायनें नहीं होतें। क्या उन्हें लडकों की तरह खुल के जीनें का हक नहीं? सपनें जीनें का शौक नहीं? सिर्फ उलझ के रहना और बिखर के टूट जाना बस यहीं तक हैं हम लडकियों की ज़िन्दगीयाँ।

यहाँ गर किसी लडकी के साथ बलात्कार हो जाता हैं तो मीडियां, समाज़, रिश्तेंदार, यहां तक की अपनें भी उससे कट के रहना शुरु कर देते है और कुसूरवार उस लडकी को बनना पडता हैं और वहीं वो लडका अपनें ज़िन्दगी को बखूबी उसी ढंग से जीता हैं जिससे पहलें तक वो जीता रहा हैं। क्या कारणें हैं आखिर तर्क क्या होतें हैं?
कोई कहता हैं जरूर लडकी नें भडकीलें कपडे पहनें हो और यें कोई..
कोई और नहीं..
वहीं राज़नेता होतें हैं जो ऐसे कपडों को बनानें के प्रस्ताव का समर्थन करतें हैं और उसमें बकायदा अपना हिस्सा भी बना लेते हैं।
तो कभी कोई कहता हैं लडकी नें उकसाया होगा वो लडकी जो अपनी इज़्ज़त की गुहार करतें-करतें या तो मर जाती हैं या एक सदमें में हो जाती हैं ऐसी बेबाक बातें उन लोगों से अधिकतर सुननें को मिलतें हैं जिनकें घर के बेटियों-बहुओं के ना-जानें ऐसे कितनें अनुभव हो जो अब वो इस कांड पे समाज़ को सुना के बताना चाहतें हो। ऐसे ही जितनें लोग उतनें रंग जितनें रूप उतनें बातें।

भला कोई क्या कर सकता हैं इन मुश्किलातों में अक्सर लोग मुझसे यहीं पूछ्तें हैं। उनका कहना ये होता हैं वर्माजी घर पे बैठ के लिखना और उससे मुक्ति पा लेना जैसे रुह को सुकूं मिल जाएं तो आप भी हमसे कौन से कम हैं? आप भी कहीं ना तो कहीं वहीं बलात्कारी के रूप में समाज़ में पल रहें हैं। आपकों पता हैं वर्माजी आप एक ख्याली दुनियाँ में जीतें हैं जहां बस आप ही बोल या सुन सकतें हैं आपनें ना जाने कैसा माहौल तैयार किया हुआ हैं की आप समाज़ से अलग होकर सोचना शुरु कर देते हैं, अब हम आपकी इस बात का क्या कहें। सच भी कहतें हैं सब मैं निरूत्तर सा हो जाता हूँ कहीं ना कहीं मैं भी तो जिम्मेवार हूँ।

एक वाक्या याद आ रहा हैं इस संर्दंभ में वो मैं आपको सुनाता हूँ मेरे एक मित्र हैं जो कि इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत हैं एक दिन हम-दोनों में ऐसे ही बहस हो रहीं थीं बलात्कार की एक मुद्दें पर और परिणाम-तर्क ऐसे निकलें जिसे सुन के मैं खुद हैरान था।
मैनें उनसे कहा था अरे! आपका सिस्टम तो बस सो-सा गया हैं अब कुछ काम का नहीं रहा, ना जानें इतनी बलात्कारें कैसे हो जाती हैं आप लोग आल-आउट के साथ म्यूज़िक लाउड करके सोते हैं क्या?
मेरे व्यंग्ता से नाराज़ होतें हुएं मेरे मित्र ने कहा किसी पे उंगली उठाना बहोत आसान हैं वजह ना भी हो तो बखेडा खडा करनें में लगता ही क्या हैं? और वैसे भी तो आप लोग आम आदमी हो आप लोग ही कुछ क्यूं नहीं कर लेते। जब काम करनें की बात आती हैं तो घर में कभी माँ तो कभी बीबी के आँचल में सर छुपा के बैठ जातें हैं। गंभीरता-सा मेरी बातों को लेने की जरूरत नहीं हैं। बस आप उन लोगों का रूप, हुलियां या तस्वीर ही दिखा दिजिएं जिसनें हम उन दरिंदों को पकड सके।
आखिर कोई तो रूप होता होगा ना आप-लोग तो सब जानतें ही होंगें इतना कुछ लिखा-पढा हैं आप लोगों ने.. अपनी मंडली के लोगों से पूछ के बतानें का कष्ट करें। यदि आपका सुझाव कारगर हुआ तो हम आपकों सम्मानित भी करवानें की कोशिश करेंगे आखिर तो लोगों के सुझाव से ही तो ये समाज़ चल रहा हैं।
वर्मा भाई किसी के मन को पढना बहोत मुश्किल होता हैं कब उसकी मन की अच्छी भावनाएं बदलकर एक वैसियहत का रूप ले ले कोई नहीं जानता। मन तो चंचल होता ही लेकिन जब इंद्रियाँ उनका समर्थन अपनें स्वाभिक रूप को छोडकर कहीं और चली जाएं तो उसका कोई उपाय नहीं होता। बलात्कार अधिकतर कमजोरों के साथ होता हैं अगर कोई उतना ही सामर्थ की कोई महिला सामनें खडी हो जिसे अच्छी प्रशिक्षण प्राप्त हो तो इससे खुद को बचाया जा सकता हैं। हांलाकि इससे यह बंद नहीं पर कम जरूर हो जाऐगा।
तब यह बलात्कार जो आम खबरों की तस्वीर लिएं अखबार के पन्नों पे किसी अबला लडकी की कहानी को नहीं उसकी बहादुरी को प्रदर्शित करेगा।

बात भी काफी सही थें सारें तर्क लाजबाव थें आखिर कोई समाज़ इतना सब कुछ जानतें हुएं कैसे अपनें एक के किएं पे शर्मिन्दगीं को महसूस करता हैं। यहां और भी ना जानें ऐसे कितने उपाय हैं जिनका विश्लेषण नहीं किया गया हैं जैसे लिंग-शिक्षा, प्रशासन और समाज़ की बढती जिम्मेदारियों वाली पार्टियां इत्यादि।

मेरा भी यहीं मानना हैं लडकियाँ अधिकतर इस दुष्परिणाम का शिकार अपनें अबलेपन के कारण होती हैं उनकी ना-समझी उनको यौन-शिक्षा के ना मिलनें से होती हैं। अगर जब कहीं उजाला नहीं हैं तब कहीं अंधेरें की अस्तित्व हैं, यदि कहीं ज़िन्दगी नहीं हैं तो मौत का अस्तित्व हैं, वैसे ही अगर आप चाहतें हैं बलात्कार का अस्तित्व ना हो तो आपको जागरूक बनना होगा और यदि आप जागरूक होतें हैं तो हज़ार हल आपकें सामनें नज़रें झुकाएं शर्मिन्दगीं से खडें मिलेंगे। बस इतना ही कुछ कहना चाहता था, यदि कोई लेखक एक स्त्री के दर्द को नहीं समझ सकता तो वह कभी एक अच्छा लेखक नहीं हो सकता।

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..हर फूल हर चमन की मुस्कान मेरी बिटियां..
..मेरी ज़िन्दगी की शान-ए-बयान मेरी बिटियां..

..बकवासी बातों से कितनी आगें हैं मेरी बिटियां..
..अखबारों की जगह अब चाँद पे हैं मेरी बिटियां..

..सजता अब जो कोई शाम-ए-शमां मेरी बिटियां..
..पीछें तेरा ही नाम लगा दिखता हैं मेरी बिटियां..

..अब तू मुस्कुराती हैं जो पहचान हैं मेरी बिटियां..
..आज़ तेरे ही नाम से नाम हूँ ये जान मेरी बिटियां..

..नितेश वर्मा..

Thursday, 24 July 2014

..अगर तुम कहो..

..थें जो कल रात ख्वाबों में नैंन तेरे..
..तेरा अपना हो जाऊँ अगर तुम कहो..

..बातों पे पहरा वो मुहब्बत का चेहरा..
..तेरा ग़ज़ल हो जाऊँ अगर तुम कहो..

..रूठा-रूठा सा हैं ये नज़राना तेरा..
..गलें से लग जाऊँ अगर तुम कहो..

..तेरे मखमली चेहरें की क्या तारीफ..
..लबों को छूं जाऊँ अगर तुम कहो..

..कैसे डूबें पडे हैं तेरे होश में ये होश गुम..
..तेरा दुपट्टा हो जाऊँ अगर तुम कहो..

..नितेश वर्मा..


..हर चिरयैं को जैसे आसमानों में सुकूं मिलता हैं..

..हर चिरयैं को जैसे आसमानों में सुकूं मिलता हैं..
..तुम्हारें तस्वीरों को छूनें पे मुझे वो सुकूं मिलता हैं..

..मैं भटकता रहता हूँ कहाँ तेरी यादों में कहीं..
..ये आशिकी जुनूं हैं जो के तेरे रूह से मिलता हैं..

..जैसे सबनें अपनें मेहर को दिल में सजाया हैं..
..कोई पूछ ले पता तेरा कह दूं वो दिल में मिलता हैं..

..सयाना जमाना था तो हम भी कम कहां थें जान..
..माँगा जो तस्वीर तेरा कहा वो ख्वाबों में मिलता हैं..

..अब जब तुम ही ना राज़ी हुएं तो क्या कहता मैं..
..हुआ सरेआम जो कहा कभी भला चाँद भी मिलता हैं..

..मेरे आँखों में जो वो देखते हैं एक दर्द वर्मा..
..कहते हैं ना जानें क्यूं हर वक्त उदास मिलता हैं..

..नितेश वर्मा..

..समुन्दर की लहरें.. [..Samundar Ki Lahrein..]

समुन्दर के किनारें शाम का समय कितना अज़ीब होता हैं ना? लहरें बेबाक आती-जाती रहती हैं जैसे कुछ कहना-सुनना चाहती हो। या फिर कभी ऐसा लगता हैं जैसे वो मेरे सारें गमों.., गीलों.., रूसवों.. को ले जा के अपनें किसी अंत में मिला देना चाहती हो। बिना किसी कीमत के मेरें सारी परेशानियों को मुझसे अलग कर देना चाहती हो। सिर्फ एहसास ही एहसास बिना कुछ कहें सिर्फ मेरी और मेरी ही सुनती जाती हों। जैसे कोई हमदम हो.. या पुरानी जन्म का प्यार.. या अपनों-सा कोई रिश्ता। बहोत कठिन और जटिल.. समझना जैसे बहोत मुश्किल होता हैं। इसी सोच में डूबा रहूँ तो बेवजह आकें बारिशों की बूंदों की तरह चेहरें को छूं जाना.. जैसे शरीर या यों कहिएं ज़िन्दगी में एक नयी ताज़गी भर देना। अज़ीब-सा एहसास.. पन्नों पें जिसे सजाना बहोत मुश्किल हो.. सिर्फ तेज़ बहती हवाएं और समुन्दर की बेबाक तेज़ लहरें। बहोत अजीब स्वभाव.. कभी-कभी इतनी बेरूख जैसे सब तबाह कर दें कभी बिल्कुल शांत.. जैसे किसी के यादों में खोएं हुएं।

आपको पता हैं मुझे रेंत पे अपनी कलाकारी करनें का बहोत शौक हैं। लेकिन यें कलाकारी तभी अच्छें से निखर पाती हैं जब मैं किसी मुश्किलात में होता हूँ और उस मुश्किल को जब मैं अपनें दिल से निकालनें की कोशिश करता हूँ.. वो दर्द.. वो बात.. बखूबी दिल से मेरे तिल-तिल करके निकल भी जाती हैं। लेकिन तभी अचानक मेरें दिल के गमों को धोतें हुएं हर बार कि.. की हुई मेरी मेहनत को.. मेरी बनाई मेरी प्यारी-सी तस्वीर को.. मेरा दर्द समझ कर.. अपनें बूंदों से मिटानें की कोशिश.. जैसे मेरे दर्द उसें थोडा भी अच्छें ना लगतें हो। इतना अपनापन इतना लगाव आँखें भर-सी जाती हैं.. लबों पे एक हल्की-सी मुस्कान आ जाती हैं.. गला भरा हुआ होता हैं जैसे कुछ बोलूं.. तो बस दर्द ही बाहर निकलें।

आज़ मैं यहां आया भी उदास था.. बेचैंन था.. लेकिन जानें पे उदासी साथ तो हैं पर वो मलाल नहीं जो आनें पे मेरे साथ था.. अब वो कहीं दिल में लगता नहीं। जैसे इक सुकूं-सा मेरे दिल में हैं। धीरें-धीरें जैसे शाम का वक्त ढलता हैं.. हवाएं उतनी ही खुशमिज़ाजी होती चली जाती हैं। एक अज़ीब-सा सुरूर होता हैं उन हवाओं में जुल्फें बे-खौफ लहराती हैं.. मन मदहोश-सा हो जाता हैं.. रुह को एक कमाल का सुकूं मिलता हैं। लेकिन मेरी तरह समुन्दर के साथ ऐसा कुछ भी नहीं। जब मैं आया था तब भी वो वैसा ही था.. जैसा अभी जानें के वक्त हैं। जैसे ना मेरे आनें की खुशी और ना मेरे जानें का गम.. सबसे उपर.. विलासताओं से परें। कितना कुछ छुपा के बैठना और एकदम-सा शांत रहना.. मेरे साथ ऐसा क्यूं नहीं होता? क्यूं दिल मेरा बेचैंन रहता हैं। कभी नाराज़ होता हैं तो दिल इकदम सा सहम जाता हैं ना-जानें कितनें तबाह होगें, घर तो अलग ना जानें कितनें ज़िन्दगीयाँ बर्बाद होगें। अखिर कब-तक कोई सहता हैं शायद ये समुन्दर भी एक वक्त आकर टूट जाऐगा क्या?

..दिल की खामोशियों को कहती हैं ये लहरें..
..कभी नाराज़ तो कभी खुश होती हैं ये लहरें..
..छूकर जो चली जाती हैं मेरे मन को कभी ये लहरें..
..दिल रहता हैं बेचैंन और सुकूं दे जाती हैं ये लहरें..

..नितेश वर्मा..

Wednesday, 23 July 2014

..अब दिखता नहीं..

..आँखों में कल जो देखा था उसकें..
..था जो तस्वीर मेरा अब दिखता नहीं..

..फेर लेती थीं मेरी हर शरारत पे आँखें जो..
..आज़ आँखों में आँख थीं प्यार अब दिखता नहीं..

..देख मुझे सीनें को जो लग जाती थीं..
..आज़ है मीलों दूर खडी साया भी अब दिखता नहीं..

..हाथों में हाथ दे जो चलती थीं बिन कुछ कहें..
..आज़ रास्तों-रास्तों पे सवाल हैं मुहब्बत अब दिखता नहीं..

..माना गलती थीं मेरी जो हुई थीं ये बातें सारी..
..मगर सीनें में था जो प्यार क्या अब दिखता नहीं..

..अब किस्सा भी किस बात का सुनाऊँगा मैं वर्मा..
..मेरी बातों में जो थीं आँखों में अब दिखता नहीं..

..नितेश वर्मा..

..माँ: ममता का एक अद्वितीय स्रोत..

माँ कितना आसान और कितना अहम शब्द हैं। माँ जो इक ज़िन्दगी की नींव रखती हैं। बिना किसी संकोच, अपराध, छल, कपट के वो अपनें बच्चें को जन्म देती हैं और उसका पालन-पोषण करती हैं, यानि माँ किसी बच्चें की ज़िन्दगी का सबसे अहम हिस्सा होती हैं। माँ किसी किताबों में सजानें, पार्टियों में शोघी बघोरनें, या सामाजिक कार्यों में दिखावें का साधन नहीं होती वो तो आपकी माँ होती हैं। माँ का मतलब आप समझतें हैं ना  माँ ममता का एक अद्वितीय स्रोत हैं। माँ की सेवा की जानी चाहिएं, क्यूंकि आपकों पता नहीं, मुझे पता नहीं हमारें जन्म के पीछें हमारी माँ का कितना संघर्ष हैं। वो किस कदर इस सामाज, अपनें परिवार और अपनें स्वास्थ से लड के आपकों इस दुनियाँ में लाती हैं। बहोत आसान होता हैं अपनी जिम्मेदारियों से भाग के उनसे पीछा छुडा लेना और वो वाकई कारगर साबित होता हैं, लेकिन आपके उस निर्णय से ना जानें कितनी ज़िन्दगीयाँ बर्बाद होती हैं।

..कोई उम्मीद बर नहीं आती कोई सूरत नज़र नहीं आती..
..माँ हैं क्यूं रूसवां मुझसे बात हैं जो ये समझ नहीं आती..

        माँ का दिल बहोत बडा होता हैं वो अपनें बच्चों से नाराज़ या उदास नहीं होती वो तो बस कभी-कभी उनकें हरकतों से परेशान हो जाती हैं। उन्होनें उनसे ज्यादा अच्छें से दुनियाँ को देखा हैं समझा हैं उन्हें पता होता हैं की कौन सा रास्ता उनकें बच्चों के पक्ष में जाता हैं और बस इस बात को ये बच्चें समझ नहीं पाते। माँ उनकें बस इस बात से परेशान रहती हैं और दिल इतना साफ और सुलझा हुआ जो बखूबी दिख जाता हैं लेकिन मुद्दा समझ नहीं आता। गर माँ आपसे रूठ जाएं तो उन्हें मनानें की कोशिश करें बात करनें की कोशिश करें आपकी माँ कभी भी आपको नज़र-अंदाज़ नहीं करेंगी इसका मुझे पूर्णं विश्वास हैं।

..जब रूखसत ही करना था मुझे तो इस काबिल बनाया क्यूं..
..जाँ जाती हैं अब बिन तेरे हर दर्द पे मेरे मरहम लगाया क्यूं..


..मेरें एहसासों की बात हैं ये..
..दिल मेरा आज उदास हैं ये..
..लगती हैं माँ मुझसे नाराज़..
..तस्वीर हैं जो पास हैं ये..
..किसी दिन सोया था जो आँखों में उनकें..
..बुझ गयी थीं जो प्यास हैं ये..
..उदास हो जाता हैं तब ये मन मेरा..
..माँ रूसवां हो जाती हैं कोई बात हैं ये..
..आज़ चाहता हैं फिर से कहूँ कुछ उनसे..
..ना जानें क्यूं दिल उदास हैं ये..
..मेरे होंठों पे ना-जानें..
..तुमनें कितनें नाम सजा दिएं..
..आसां हैं माँ तुझे बुलाना क्या बात है ये..
..अब किस-किस नाम से मैं तोडूं नाता..
..प्रीति,सपना,नेहा हर आवाज़ में हैं तू..
..गलें से जो तुमनें लगाया था मुझे..
..आज़ हूँ तन्हा खडा कोई हयात हैं ये..!

..नितेश वर्मा..

..ठंडी कुहासों के बीच..

..ठंडी कुहासों के बीच..
..जब तुम गुजरती थीं..
..मेरे गर्म चाय की प्याली..
..जा के वहीं ठहरती थीं..

..मैं तुम्हारें चेहरें में खोता जाता था..
..तुम नजर छुपा के..
..खामोश आगे बढती थीं..

..तुम्हारें पैरों की आहट से..
..मैं घबरा-सा जाता था..
..सारा शर्म भूला..
..तुझमें समां जाता था..

..तुम बेवजह उनसे शर्माती थीं..
..कुहासें के कारण..
..तुम्हें कुछ समझ नहीं आती थीं..
..सारें के सारें मेरे हबीब ही थें..
..तुम बेवजह उनसे घबराती थीं..

..कोई शोर नहीं होती थीं..
..कुत्तें की अभिनय..
..कुत्तें दोस्तों की होती थीं..

..घबरा के पास तुम मेरे आ जाओगी..
..कहके तुम्हें वो सतातें थें..
..दोस्त भी सारें कितनें अच्छें थें..
..भाभी-भाभी कहके तुम्हें बुलातें थें..

..आज़ फिर से वहीं चौक किनारें बैठा हूँ..
..मिल जाऐंगी आज नज़र तुमसे..
..इस बात से भरी दोपहर बैठा हूँ..!

..नितेश वर्मा..

Tuesday, 22 July 2014

..मेरें हाथों में था नसीब कैसे वो मिट गया..

..मेरी खामोशियों पे था जिसनें बात बनाया..
..आज़ कहता हैं जमानें से इंसाफ़ मिट गया..

..रिश्तों में थोडा क्या दरार हो गया..
..कहता हैं दिल से मेरे वो मिट गया..

..बनाया था किस कदर अपनें हिस्सें से उसे..
..आज़ पूछता हैं उसमें मैं कैसे मिट गया..

..हक़ की बात भी करता हैं जमाना सारा..
..मेरें हाथों में था नसीब कैसे वो मिट गया..

..किसी के सवालों का अब कोई जवाब नहीं..
..दर्द हैं बची हिस्सों में मौत कबका मिट गया..

..अब कोई कैसे सुनाता हैं हालात-ए-जुबाँ..
..जुबाँ पे जो नाम था जुबाँ पे ही मिट गया..

..नितेश वर्मा..

..किया था लायक जिसे वो हिसाब ढूंढता हैं..

..चिराग़ बुझे हैं जिस शहर में सारें..
..मेहनतकशीं आँखें आके वो घर ढूंढता हैं..

..की कई मुद्दतें तो वो सामनें आया..
..सोचा था जो हो खुदा वो खुदा ढूंढता हैं..

..गुजर गई कट के हंसरतें सारी..
..चाहता था जिसे वो मकाँ ढूंढता हैं..

..आँखें नम हो गई हैं ना जानें क्यूं ऐसे..
..बतानें को जो आया बात तो वो राज़ ढूंढता हैं..

..बहोत दिलकशीं थीं बातें उसकी..
..दिल टटोल के आज़ भी ढूंढता हैं..

..अबके सोचा हैं कुछ ना कहूँगा उससे..
..मंदिरों में जा के जो मेरा प्यार ढूंढता हैं..

..मुहब्बत में तमाम उम्र गुजार दी जिसनें..
..आकर अब वो सयानां समाज ढूंढता हैं..

..बहोत शर्मंसार कर दिया हैं उसनें मुझे..
..किया था लायक जिसे वो हिसाब ढूंढता हैं..

..नितेश वर्मा..



..था राख हर जगह अब दिखाना क्या था..

..मैं गरीब था इसमें इतना समझाना क्या था..
..हालत देखी थीं उसनें मेरी अब बताना क्या था..

..घर जल गया था मैं जिंदा लाश बचा..
..था राख हर जगह अब दिखाना क्या था..

..मस्जिद गया जो खुदा को बतानें सब..
..लाखों रो रहें थें दुख दिल को अब समझाना क्या था..

..सबनें देखा जो चाँद सनम आया था नजर..
..मेरें आखों में थीं जो गरीबी सर उपर उठाना कहां था..

..जलतें गए हर दर्द के मरहम मैं खामोश जो था..
..कैसे कहूँ लूटी मेरी सत्ता निर्दोष जो मैं था..

..मेरी मासूमियत पे ना जाओ तुम वर्मा..
..मैं अकेला ही था क्या गरीब अब कहलवाना क्या था..!

..नितेश वर्मा..

Monday, 21 July 2014

..मुठ्ठी में थीं चंद किस्मत आसमानों में लूटा दिया..


..हमनें कमाया जो सब तुझपे लगा दिया..
..चाहां तुझे और खुदको समूचा लूटा दिया..

..रस्मों-रिवाजों को जिसनें आग लगा दिया..
..मिला जो मैं तो अपनी हस्तीं लूटा दिया..

..लगी आग को उसने जिस राख से बुझा दिया..
..जलता रहा शहर खुदको जो उसने लूटा दिया..

..मुझे मंदिरों में ले जा के उसने आराम दिया..
..हाथ में कटोरा और पूरा मंदिर लूटा दिया..

..सबनें आज जो देखा उसे वो दुतकार दिया..
..मुठ्ठी में थीं चंद किस्मत आसमानों में लूटा दिया..

..नई-नवेली दुल्हन की तरह अपनी बेटी को सजा दिया..
..मय्यत पे ना हो शोर उसने दावत पे खुदको लूटा दिया..

..नितेश वर्मा..


Sunday, 20 July 2014

..काफी शर्मसार हूँ..


काफी शर्मसार हूँ। मेरे ही देश के एक राज्य में एक महिला के साथ इतना अन्याय। प्रसाशन,समाज,कानून यहां तक के अपनें भी हाथ पे हाथ धरें बैठें रहें।उन्हें उनकी अवाज तक कानों में नहीं लगी।क्या दिमाग का बंधन बैठ गया था।उफ्फ! क्या जमाना आ गया हैं।

मुझे पता नहीं मुझे इस बात पे क्या लिखना चाहिएं। अपनी नाकामीं,शर्मिंदगी, समाजी वर्चस्व या फिर बहकी बकवासें।बलात्कार, जुर्म हैं ना? फिर भी आएं दिन हो रहा हैं.. कौन हैं इसका जिम्मेदार.. क्या यें हमारें अपनों के भी साथ हो सकता हैं? ना ना.. सोच के ही रूह काँप जाती हैं तो फिर उनका क्या हाल होता होगा जिनपें ये गुजरती हैं? उस लडकी/स्त्री/औरत का क्या होता होगा।स्थिति सोचनीय और गंभीर हैं।

जिनके हाथों में कमान हैं वो तीर की प्रतीक्षा कर रहें हैं.. तीर मिलनें के बाद गुरू-आशीर्वाद की फिर उसके बाद तक स्थिति काबूं में ना हुई हो तो करीब जा के आहिस्तें से तीर-कमान फेंक कर दोषी को ऐसे पकडते हैं जैसे कोई बच्चा अपनी माँ से 6 महीनों बाद मिला हो।

क्या होगा इस देश का?
मेरा?
मेरे समाज का?
आखिर शुरूआत तो किसी को कहीं से ना कहीं से तो करनी ही होगी.. क्या सब अपनें में इतनें व्यस्त हैं की उन्हें अपना कल नहीं दिख रहा। उस कमाई का फायदा ही क्या जो एक वक्त आ के निलाम हो जाएं। यहां यह जरूरी हैं सबको कानून,समाज,सरकार को अपनी-अपनी जिम्मेदारियों को अच्छें ढंग से निभानें का। ज्यादा कुछ कहना-लिखना अखबारी हो जाऐगा और आपके पास उतना वक्त भी नहीं होगा सब पढने और समझनें का। देश के भविष्य में जागरूक बनें, धन्यवाद।


..अक्सर दिन लग जाते हैं सब समझ आनें में..
..चौराहें पे लुटती हैं इज्जत शर्मं आती हैं कहके सुनानें में..

..वो दरिंदा क्या समझेगा इक अबला की हरकतें..
..बेचारी सहमीं रहती हैं घर से निकल के आनें में..

..धुंधला सा पडा हैं ये समाजी ढाँचा..
..कोई क्या मानेगा मेरी कहानी में..

..मैं खामोश रहता हूँ तो चींखें गुँजती हैं कानों में..
..लिखता हूँ गर तो साँसें चलती हैं मगर रूह रहती हैं जमींदारी में..!

..नितेश वर्मा..


Saturday, 19 July 2014

..पूछा जो मैनें सब एक-तरफा कह दिया..


..आँखों में जो छलक गएं दो बूंद पानी के..
..उसने बिना देखें ही आँसू को शराब कह दिया..

..देखती रही आँखें हर वक्त जिस नाम को..
..तमाम उम्र की आशिकी को उसने नादानी कह दिया..

..मैं उसकी याद में ना-जानें कहाँ बैठा था..
..पलक जो क्या झपकाया मैनें उसनें ख्वाब कह दिया..

..क्यूं मेरी मुहब्बत में वो नुक्स निकालती रहती थीं..
..पूछा जो मैनें सब एक-तरफा कह दिया..

..सुबह-शामें-रातें ना जानें मैनें कितने जागे थें..
..मेरी हरकतों को सरे-आम उसने इक शैतानी कह दिया..

..नितेश वर्मा..


Friday, 18 July 2014

..दिल नादां हैं..


..ले चला हैं दिल से मेरे मेरे कहानी को..
..दिल नादां हैं..
..निकल बैठा हैं जो सब समझानें को..

..कभी कहता हैं तो कभी रूक जाता हैं..
..हैं बहोत उल्झन ये जुबानी सुनानें को..

..इन हैंरत से यूं ना देखो तुम..
..वक्त लग जाता हैं..
..मुहब्बत गर दिल में..
..हो तो दिखानें को..

..बातें बनानें वाली कोई बात नहीं..
..इज़हार-ए-इश्क हैं..
..शर्मानें की कोई बात नहीं..

..हर आरजू बिन तेरे अधूरी रह जाती हैं..
..कैसे कहूँ तुम-बिन..
..अब तो साँसे भी रूक जाती हैं..

..खामोशियों ने घर कर ली हैं मुझमें..
..खुद में लिपटा बैठा हूँ..
..खुद को समझानें को..

..इश्क को दिखानें को..
..दिल निकल बैठा हैं तुझे समझानें को..
..मेरी ना सही इसकी तो सुनों..
..लगा रहता हैं हर-वक्त तुझमें..
..कुछ इसकी तो बुनों..

..मेरे होंठों पे तुम्हारा नाम आ जाता हैं..
..कैसे कहूँ बिन तेरे अब रहा ना जाता हैं..

..बातें तो बस इक बहाना हैं..
..मक्सद तो कुछ और ही जताना हैं..

..मेरें यादों मेरी बातों में जो तुम रहतें हो..
..दिल के हर कोनें से जो तुम कहतें हो..
..मेरी मानों तो अब हाँ ही कर दो..
..उल-जुलूल की बातें अब रहनें दो..

..अब बचा ही क्या हैं समझानें को..
..यें यूं ही निकल बैठा हैं..
..ना जानें क्या सुनानें को..!

..नितेश वर्मा..


..तो हराम बतातें हैं लोग बहोत..


..देखा हैं मैंनें..
..ताना देते है लोग बहोत..
..कीचड से खुद निकल जातें हैं..
..तो सयानें बनते हैं लोग बहोत..

..अपनें तकलीफ़ की बात..
..बतातें हैं लोग बहोत..
..मेरा गर नाम आ जाता हैं..
..तो तो बात बनाते हैं लोग बहोत..

..दरहो-हरम..
..फ़रियाद ले जातें हैं लोग बहोत..
..मै नमाज़ को जो बैठूं..
..तो हराम बतातें हैं लोग बहोत..

..दोस्ती-मुहब्बत कानून-समाज..
..गातें हैं गुण इनके लोग बहोत..
..मैं अपराध में हूँ..
..तो शर्मसार करतें हैं लोग बहोत..

..गरीबों की आह अमीरों की वाह..
..कह जातें हैं लोग बहोत..
..खुद को इक नज़र देखों तो कभी..
..कहूँ जो मैं बकवास बताते हैं लोग बहोत..

..मेरे हर लिख्खें में कोई नुक्स..
..निकाल देते हैं लोग बहोत..
..मैं कहता हूँ अब चुप ही रहों वर्मा..
..बात कांटनें अपनें अब आतें हैं लोग बहोत..!

..नितेश वर्मा..


Wednesday, 16 July 2014

.. मिलता नहीं सुख उन्हें, उड के वो आसमानी हो गई..

..सुबह से शाम हो गई, थीं जो बात सरेआम हो गई..
..मिलता हैं भगवान मन्दिरों में, लिखी बात शर्मसार हो गई..

..खून-पसीनें की कमाई, सब राख हो गई..
..मिलता था प्यासें को पानी में जो सुकूं, खाख हो गई..

..चिडियों के साँसें भी, इस तपन से जल के झुलस गई..
.. मिलता नहीं सुख उन्हें, उड के वो आसमानी हो गई..

..किसी की मोहब्बत में, आसं लगा के वो गुजर गई..
..खुली हैं आँखें आज़ भी, इन्तजार की हद हो गई..

..समुन्दर से सारी लहरें, किनारें हो गई..
.. मैनें फेंका जो पत्थर पानी में, शामें अब शराबी हो गई..

..ले सकती थीं ज़िन्दगी जो साँसें, वो ले गई..
..मौत का इख्तियार हैं मुझपे, कैसे वो बची रह गई..!

..नितेश वर्मा..

Tuesday, 15 July 2014

Writer Nitesh Verma: ..तस्वीरें बदलती ज़िन्दगी की.. [Tasverein Badalti Z...

Writer Nitesh Verma: ..तस्वीरें बदलती ज़िन्दगी की.. [Tasverein Badalti Z...: मेरी चौथी सेमेस्टर बीत चुकी थीं और मैं अपने घर बेतिया आ चुका था । पूरें 2 महीनें की छुट्टी हुई थीं । मैं तो ये सोच के ही घर आया था चाहें कु...

..बिखर जातें हैं टूट के आँखों से ख्वाब जैसे..

..बिखर जातें हैं टूट के आँखों से ख्वाब जैसे..
..दिल से लगे आस रह जातें हैं प्यासे वैसे..

..घोंसलें से निकल के परिंदे ढूँढतें हैं बसेरा जैसे..
..अपनों को छुडा आशिक निकलतें हैं ढूँढनें प्यार वैसे..

..ले आतें हैं वो मन्दिरों से अपनें पू्जे का हिसाब जैसे..
..यादें खेल के निकल जातें हैं उसके मेरे होंठों पे वैसे..

..सब माँगतें हैं हर-वक्त एक रात सुहानी जैसे..
..मेरें बाहों में भींगें वो हो हंसरती शामें वैसे..

..लिया था पूर्वजों ने आजादी के लिए अंग्रेजों से लोहा जैसे..
..सहमा-सहमा रहता हूँ कहीं फिर से करना ना पडे हो बातें वैसे..

..समुन्दर की बेबाक लहरें आती-जाती हैं जैसे..
..मेरें खुली जुल्फें बेखौफ़ आज़ लहराती हैं वैसे..

..नितेश वर्मा..

..मुक्तसर सी वो इश्क में मुलाकात थीं..

..मुक्तसर सी वो इश्क में मुलाकात थीं..
..ज़ुबां खामोश ही थें..
..आँखों की बात कायनात थीं..

..आलिंगन में होनें को जी चाहता था बडा..
..लब से लब मिलें यें दिल चाहता था बडा..

..भोली सूरत, खामोश निगाहें..
..चाह के भी नज़रें कैसे ना झुका पाता था..

..दीवार के ओट से जो वो देखती रहती थीं मुझे..
..दीवार ही थीं वो कैसी..
..जो हम दोनों के बीच लगी रहती थीं..

..मचल जाता था जीं बडा..
..करना चाहता था उसे खुद से रू-ब-रू ज़रा..

..उठा के अखबार वो चली जाती थीं..
..और जाते वक्त पता ना देख मुझे..
..क्यूं मुस्कुराँ जाती थीं..

..मैं रहता था हैंरान..
..मुझपें या मेरें इश्क पे हँस के..
..क्यूं वो चली जाती थीं..

..दीदार चेहरें की आज़ तलक बाकी हैं..
..ना जानें कैसी हैं मुक्द्दर..
..इक उम्र गुजर के भी..
..दिल में कहीं वो बाकी हैं..

..मुक्तसर सी वो इश्क में मुलाकात थीं..
..ज़ुबां खामोश ही थें..
..आँखों की बात कायनात थीं..!

..नितेश वर्मा..

Monday, 14 July 2014

..प्रशासनिक वादें..

प्रशासनिक वादें ऐसे वादें जो प्रशासन के उम्मीदवार अपनें चुनावी पहल से पहलें उस क्षेत्र के निवासी जनता से करते हैं। लेकिन वो वादें अधिकतर छूटें जमीं की नींव पर तैयार की जाती हैं जो बस दिखावटी और बनावटी होते हैं। उनका किसी नए सपनें और साकारात्मक रूप से कोई वास्तविक संबंध नहीं होता। और आप कुछ कह ले जैसे मासूम या मूर्ख जनता इनकी प्रमुख ज़िम्मेवार होते हैं। कहनें पर कहतें हैं क्या करूं कोई तो यहां अच्छा नहीं..
..जो कुछ दे देता हैं उसी को वोट दे देते हैं..
..या फिर वो जो उनके जात का हो..
..आखिर जब वोट देना हक हैं ही तो वो हक अपनें जात के पक्ष में गिरें तो गलत ही क्या हैं जैसे अनेक बहानें। लेकिन मुद्दें का विषय यह नहीं बात उनकें मासूमियत और छोटें सोच की नहीं बात आज़ अपनें गाँव,शहर या देश की हैं। फर्क पडता हैं इंसा के सोच से ही समाज़ का स्वरूप होता हैं। दुनिया बदल रहीं हैं लोग बाहरी देश से प्रभावित होकर वहां बसनें चले जा रहें हैं।
..लायक अभियंताओ,चिकित्सकों,कारीगारों जैसे बहोत से देश के भावी भविष्य अपनें बदहाली को देखतें हुएं देश को छोड-कर कहीं और रूख कर लेते हैं। शायद वो समझदार हैं जो अपनें ज़िम्मेदारियों से पीछा छुडा लेते हैं। लेकिन काफी पढनें और समझनें के बाद बात यह सामनें आई की जब वो यहां अपनें देश में रोज़गार ढूंढतें हैं तो काफ़ी मुश्क्कत के बाद तो कभी उनकों कोई रोज़गार मिलता हैं और वो इतना कम होता जिसमें उनका और उनके परिवार का निर्वाह नहीं या बहोत मुश्किल तरीकों से हो पाता हैं। समझ नहीं आता वजह क्या हैं? किसी दिन और आऊंगाँ इस मुश्किलात के तह से तो अच्छें से लिख पाऊंगाँ।

..मैंनें पत्थर फेंक के देखा..
..अब शीशा उसका टूटता नहीं..
..जाज़िम अब और कितनें ज़ुर्म करेगा..
..घर जो हैं उसका टूटता नहीं..!

..माँगनें आया था वो जो वोट मेरा..
..नज़रों में मेरे अब आता नहीं..
..ना जानें कैसे वादें पूरें करेगा अपनें..
..बाँन्ड भरकें जब वो जाता नहीं..

..बहोत परेशान हूँ तो कुछ कह देता हूँ..
..वैसे भी मेरी कोई सुनता नहीं..
..अब जब कोई ना देखें तो बात अलग..
..गरीबों का क्या अमीरों का भी पेट भरता नहीं..!

..नितेश वर्मा..

Sunday, 13 July 2014

..दहेज-प्रथा.. [Dowry-System]

दहेज-प्रथा.. कहा जाता हैं जो की एक सामाजिक बुराई हैं, अक्सर लडकों वालों की तरफ़ से इसकी माँग की जाती हैं।
लेकिन तब क्या होता हैं जब एक लडका एक अच्छी शिक्षा प्राप्त कर एक अच्छें जगह कार्यरत होकर अपनें गाँव या शहर अपनें, अपनों से मिलनें जाता हैं; तो लोग कैसे-कैसे प्रस्ताव लेके उस लडके या उसके परिवार वालों के पास जातें हैं। जिनसे लोगों को लगता हैं वो यहां अपनी यहां बेटी को ब्याह देंगे तो उनके ज़िन्दगी भर के छोटें सोच को एक जमीं मिल जाऐगी, कहनें को हो तो जाऐगा कि पढाया-लिखाया नहीं तो क्या शादी-ब्याह अच्छें घर में कर दी अब आगे की ज़िन्दगी खुशी से तो रहेगी। इसका क्या मतलब हुआ जब-तक वो आपकी बेटी आपके पास हैं आप उसे खुश नहीं रख सकते, उसके खुशी के लिए आप एक ऐसे अंजान लडके की तालाश कर रहें हैं जो बाहर कहीं कार्यरत हैं।

कैसा जमाना हैं आज भी ऐसे बहोत अभिभावक हैं जो अपनें बेटियों को एक अच्छी शिक्षा के लिए उतनें पैसे खर्च नहीं करतें जिनसे की उनका भविष्य संवर सके और आगे की  खुशियों की बात करतें हैं।
यह अनुभव जरा तीखा होगा मगर क्या करूं एक लडकी के दर्द की जुबां ऐसी ही होती हैं जो ज़िन्दगी भर अपनी खुशियों को मारतें आई हैं क्या संभावना हैं के वो लडका उसके लिएं सही ही होगा या फिर सही ही आगे का निर्णय लेगा। जबकि यहां तक उस लडकी की शादी उससे बिना कुछ कहे-सुनें तय कर दी गई हो या यों कहिएं थोंप दी गई हैं।
बात वहीं हैं.. मुश्किलात बहोत हैं.. विषय बहोत सोचनीय हैं.. कभी-कभी इनका स्वरूप बदल जाता हैं लेकिन जो मुद्दा हैं वो यहीं  आके ठहर जाता हैं।

..आज़ मुश्किलों से जो मैं निकल आया हूँ..
..लोग कहतें हैं के..
..मैं अच्छें दाम का हो आया हूँ..

..खरीदनें को मुझे अब यहां..
..इक अच्छा मेला-सा लग जाता हैं..
..परेशां हूँ अब जीनें से भी घबरा जाता हूँ..

..कैसे बताऊँ उन्हें..
..लडकियाँ अब कोई बोझ नहीं..
..शहर का आँखों देखा हाल..
..उन्हें समझाता हूँ..

..मुझे खरीद के..
..कौन अपनी बेटी की खुशी खरीद लेगा..
..ज़िन्दगी के सारें दर्द..
..आज़ ही मरहम कर देगा..

..मैं कैसे बताऊँ..
..वो जो गुजरें हालात-ए-बंजर..
..किस मुश्किल से निकल..
..किस मुश्किल को पहोंच आया हूँ..

..आज़ मुश्किलों से जो मैं निकल आया हूँ..
..लोग कहतें हैं के..
..मैं अच्छें दाम का हो आया हूँ..!

 ..नितेश वर्मा..

Saturday, 12 July 2014

..बताना अच्छा नहीं लगता..

..बताना अच्छा नहीं लगता..
..दर्द हैं बहोत..
..दिखाना अच्छा नहीं लगता..

..क्यूं भला कोई नाराज़ रहता हैं मुझसे..
..समझ आता हैं..
..पर समझाना अच्छा नहीं लगता..

..सरहदों पे खडे रहते हैं मेरे देश के जवां..
..मुश्किल में हैं जमाना तेरा..
..खुदा तुझे ये समझाना अच्छा नहीं लगता..

..खाली पेट सो जातें हैं बच्चें जिसकें..
..रोज़ा हैं क्या..?
..खुद को समझाना अच्छा नहीं लगता..

..बहोत सह ली जुल्म मैंनें..
..दर्द की कोई अब मरहम नहीं..
..सुनता नहीं वो जो हैं खुदा मेरा..
..सजदें में गिड-गिडाना अच्छा नहीं लग्ता..

..तकलीफ़ में हूँ तो कुछ कह देता हूँ..
..ऐ खुदा! दूजा कौन हैं मेरा..
..बतलाना अच्छा नहीं लगता..

..सब होतें हैं काम के यार..
..दोस्ती में भी रिश्तेदारी..
..ये अच्छा नहीं लगता..

..समझ जाता हैं मेरी हरकतों को जो..
..परेशां हो वो..
..तो जीना अच्छा नहीं लगता..

..मासूम हैं जमाना तो..
..क्यूं कोई चैंन से सोता नहीं..
..आँखों में महज़ कल के सपनें हो..
..देखना अच्छा नहीं लगता..

..नादान हैं वो..
..जो मेरें इश्क में आज़ भी जाँ देती हैं..
..कमबख्त प्यार हैं मुझे भी..
..पर इतराना अच्छा नहीं लगता..

..अब सुनाना अच्छा नहीं लगता..
..मर गया हैं जो वो..
..दास्तां कुछ कहना अच्छा नहीं लगता..

..सब सुनें ऐसी कोई बात नहीं..
..पर ज़माना ना सुनें..
..तो अच्छा नहीं लगता..

..बताना अच्छा नहीं लगता..
..दर्द हैं बहोत..
..दिखाना अच्छा नहीं लगता..!

..नितेश वर्मा..

Nitesh Verma Poetry

[1] ..सब जो हैं ढूँढें वो ढूँढतें रह जाऐगा..
..खुदा हैं दिल में दिल से देख..
..दिल में मिल जाऐगा..!

[2] ..मुझे कहीं और ढूँढनें की जरूरत नहीं..
..अपनें अक्स में देख मेरा अक्स मिल जाऐगा..!

[3] ..आज़ भी वो चोटे बाकी हैं..
..दिल पे जो लगा गया था..
..वो इक अरसां पहले..!

..नितेश वर्मा..

Friday, 11 July 2014

..ग़ज़ल:एक परिचय.. [Ghazal:Ek Parichay]

ग़ज़ल शेरों से बनती है। हर शेर में दो पंक्तियाँ होती हैं। शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं। ग़ज़ल की खा़स बात यह है कि उसका प्रत्येक शेर अपने आप में एक सम्पूर्ण कविता होता है और उसका संबंध ग़ज़ल में आने वाले अगले,पिछले अथवा अन्य शेरों से हो ,यह ज़रुरी नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी ग़ज़ल में अगर २५ शेर हों तो यह कहना गलत न होगा कि उसमें २५ स्वतंत्र कवितायें हैं। शेर के पहले मिसरे को ‘मिसर-ए-ऊला’ और दूसरे शेर को ‘मिसर-ए-सानी’ कहते हैं।

1 मत्ला
2 क़ाफिया
3 रदीफ़
4 मक्‍़ता
5 बह्‌र, वज्‍़न या मीटर(meter)
5.1 छोटी बह्‌र
5.2 मध्यम बह्‌र
5.3 लंबी बह्‌र
6 हासिले-ग़ज़ल
7 हासिले-मुशायरा

#मत्ला

ग़ज़ल के पहले शेर को ‘मत्ला’ कहते हैं। इसके दोनो मिसरों में यानि पंक्तियों में ‘काफिया’ होता है। अगर ग़ज़ल के दूसरे शेर की दोनों पंक्तियों में का़फ़िया तो उसे ‘हुस्ने मत्‍ला’ या ‘मत्ला-ए-सानी’ कहा जाता है।

#क़ाफिया

वह शब्द जो मत्ले की दोनों पंक्तियों में और हर शेर की दूसरी पंक्ति में रदीफ़ के पहले आये उसे ‘क़ाफ़िया’ कहते हैं। क़ाफ़िया बदले हुये रूप में आ सकता है। लेकिन यह ज़रूरी है कि उसका उच्चारण समान हो, जैसे बर, गर, तर, मर, डर, अथवा मकाँ,जहाँ,समाँ इत्यादि।

#रदीफ़

प्रत्येक शेर में ‘का़फ़िये’ के बाद जो शब्द आता है उसे ‘रदीफ’ कहते हैं। पूरी ग़ज़ल में रदीफ़ एक होती है। ऐसी ग़ज़लों को ‘ग़ैर-मुरद्दफ़-ग़ज़ल’ कहा जाता है।

#मक्‍़ता

ग़ज़ल के आख़री शेर को जिसमें शायर का नाम अथवा उपनाम हो उसे ‘मक्‍़ता’ कहते हैं। अगर नाम न हो तो उसे केवल ग़ज़ल का ‘आखरी शेर’ ही कहा जाता है। शायर के उपनाम को ‘तख़ल्लुस’ कहते हैं।
निम्नलिखित ग़ज़ल के माध्यम से अभी तक ग़ज़ल के बारे में लिखी गयी बातें आसान हो जायेंगी।

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाले दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती
हम वहां हैं जहां से हमको भी
कुछ हमारी खबर नहीं आती
काबा किस मुंह से जाओगे ‘गा़लिब’
शर्म तुमको मगर नहीं आती

[यह ग़ज़ल गालिब मिर्ज़ा द्वारा लिखी गई हुई हैं।]

इस ग़ज़ल का ‘क़ाफ़िया’ बर, नज़र, भर, ख़बर, मगर है। इस ग़ज़ल की ‘रदीफ़” "नहीं आती" है। यह हर शेर की दूसरी पंक्ति के आख़िर में आयी है। ग़ज़ल के लिये यह अनिवार्य है। इस ग़ज़ल के प्रथम शेर को ‘मत्ला’ कहेंगे क्योंकि इसकी दोनों पंक्तियों में ‘रदीफ़’ और ‘क़ाफ़िया’ है। सब से आख़री शेर ग़ज़ल का ‘मक्‍़ता’ कहलायेगा क्योंकि इसमें ‘तख़ल्लुस’ है।

#बह्‌र, वज्‍़न या मीटर(meter)

शेर की पंक्तियों की लंबाई के अनुसार ग़ज़ल की बह्‌र नापी जाती है। इसे वज्‍़न या मीटर भी कहते हैं। हर ग़ज़ल उन्नीस प्रचलित प्रचलित बहरों में से किसी एक पर आधारित होती है। बोलचाल की भाषा में सर्वसाधारण ग़ज़ल तीन बह्‌रों में से किसी एक में होती है..

~छोटी बह्‌र~
अहले दैरो-हरम रह गये। तेरे दीवाने कम रह गये।

~मध्यम बह्‌र~
उम्र जल्वों में बसर हो ये ज़रूरी तो नहीं। हर शबे-ग़म की सहर हो ज़रूरी तो नहीं।।

~लंबी बह्‌र~
ऐ मेरे हमनशीं चल कहीं और चल इस चमन में अब अपना गुज़ारा नहीं। बात होती गुलों की तो सह लेते हम अब तो कांटों पे भी हक़ हमारा नहीं।।

#हासिले-ग़ज़ल

शेर-ग़ज़ल का सबसे अच्छा शेर ‘हासिले-ग़ज़ल-शेर’ कहलाता है।

#हासिले-मुशायरा

ग़जल-मुशायरे में जो सब से अच्छी ग़जल हो उसे ‘हासिले-मुशायरा ग़जल’ कहते हैं।

..हारा हैं दिल जुबां पे अब बद्दुआएं लगे रहते हैं..

..धूप-छाव के इंसा लगे रहते हैं..
..दुल्हन के हाथों की मेंहदी सजे रहते हैं..

..सब दूर चले जातें हैं इक वक्त आकर..
..यादों में उनके आखें लगे रहते हैं..

..कडी मेहनत करके पातें हैं कामयाबी..
..फ़िर भी पटिदारी के आँखों में गडे रहते हैं..  [पटिदारी= घर के अगल-बगल रहनें वालें पारिवारिक संबंधी।]

..सज़दे कर दुआएं भी ले ली..
..घबराया हैं दिल चोरी में लगे रहते हैं..

..इक वक्त पे आके रूक जाती हैं होशियारी सबकी..
..ज़िन्दगी में परेशानी अब लगे रहते हैं..

..चलते-चलतें कलम भी अब रूक जाती हैं वर्मा..
..हारा हैं दिल जुबां पे अब बद्दुआएं लगे रहते हैं..!

..नितेश वर्मा..

Thursday, 10 July 2014

..और घर जानें पे बच्चों के शौक आसमान होते हैं..

..सबसे जो परेशान होतें हैं..
..खुद से वो हैरान होतें हैं..

..दरियां पार कर जाना हैं उन्हें..
..ऐसी मंज़िलों से वो अंज़ान होते हैं..

..निखरता हैं चेहरा धूप में जाकर जिनका..
..मज़दूर वो  दिल से नादान होते हैं..

..बगावत करके चले आतें हैं जो..
..सियासत में वो शर्म-सार होतें हैं..

..तमन्ना दिल की आँखों पे जाहिर होनें देते नहीं..
..या खुदा रब ही जानें कैसे वो  इंसान होते हैं..

..मिलती नहीं दो वक्त की रोटी यहां..
..और घर जानें पे बच्चों के शौक आसमान होते हैं..

..सबसे जो परेशान होतें हैं..
..खुद से वो हैरान होतें हैं..!

..नितेश वर्मा..

..हाथों से वो छूट जातें हैं..

..अपनों से जो रूठ जातें हैं..
..हाथों से वो छूट जातें हैं..

..कहनें की ये बात नहीं..
..किसी यादों में वो छूट जातें हैं..

..दिल के हर तस्वीर में जो बसे रहतें हैं..
..आँखों की समुन्दर से कभी छूट जातें हैं..

..मिलातें हैं हर-वक्त जो नसीब अपना..
..इंसानों से वो अक्सर रूठ जातें हैं..

..मौसमी बदलतें हैं जो यार अपना..
..अक्सर सच्चें मुहब्बत से वो छूट जातें हैं..

..हर-हाल को बयां करतें हैं जो वर्मा..
..दर्दें-हाल से अपनें वो छूट जातें हैं..

..अपनों से जो रूठ जातें हैं..
..हाथों से वो छूट जातें हैं..!

..नितेश वर्मा..

Wednesday, 9 July 2014

..पहलें प्यार की उल्झनें..

कल हमनें देखा था पहलें प्यार की उल्झनें में पहले पक्ष यानी की लडकों की परेशानियों को आज़ हम उससे आगे बढेंगे और दूसरें पक्ष यानी लडकियों की परेशानी पे गौर करेंगे।

उफ़्फ़ कैसे करूँगीं मैं अपनी मुहब्बत का इज़हार, वो तो मेरी हर-बात का मज़ाक बना देता हैं। कितना बेवकूफ़ हैं इतना भी नहीं समझता मैं उसे कितना प्यार करती हूँ सब मैं ही बताऊँगी उसे भी तो कुछ पढ लेना चाहिए तिरछी नज़रों से देखती रहती हूँ कोई इशारा नहीं होता क्या? पता ना बेवकूफ़ कब समझेगा? चलो नहीं भी समझता हैं तो क्या मैं ही जा के बता देती हूँ की मैं उसके बगैर जी नहीं सकती उसके बाहों में बाहें डाल में भी दो कदम चलना चाहती हूँ जैसे हर प्रेमी-जुगल करतें हैं। और उसके इंकार का तो सवाल ही पैदा नहीं होता मैं हूँ भी कितनी सुन्दर आईनें के पास जाती हूँ तो आईना शर्मा जाता हैं थोडा फ़िल्मी सा लगता हैं इतनें से कम अपनी खूबसूरती बयां करूं तो वो उस खूबसूरती की अपमान हैं। ये मैं नही कहती काँलेज़ की सारी लडकियाँ भी यहीं कहती रहती हैं और मुझे जितने लव-लेटर मिले हैं ना उनमें सब में मेरी खूबसूरती के खूब खिस्सें हैं कैसे वो मेरी खूबसूरती के कायल हूएं, कैसे वो मेरे दीवानें हुएं और बहोत कुछ लेकिन मैनें उनपें कभी ध्यान नहीं दिया क्यूंकि प्यार तो मैं सिर्फ़ उसी से करती हूँ ना किसी और के बारें में सवाल भी पैदा नहीं होता चाहें और सब कैसे भी हो कितने भी सुन्दर कितने भी शरीफ़ क्यूं ना।

पर मैं उससे बताऊँगी कैसे और कहूँगी क्या कोई खत लिख लूं क्या मगर क्या लिखूं ऐसे ही सामनें से जा के कह दूँ क्या? नहीं-नहीं सामनें तो बहोत सारें लडके-लडकियाँ भी होंगे अच्छा नहीं होगा और मैं भी कोई ऐसी वैसी लडकी थोडे ही ना हूँ पता ना कोई देखेगा तो क्या सोचेगा कितनी बदतमीज़ लडकी हैं। और कही उसनें सब के सामनें मना कर दिया तो क्या? हाँ ऐसा भी तो वो कर सकता हैं और मैं कोई नूर की परी थोडे ही ना हूँ और आज़कल वो सुरभि की बच्ची कुछ ज़्यादा ही उससे चिपक रहीं हैं बात-बात पे हाथें मार देती हैं कोई ना कोई बहाना बस ढूंढतें रहती हैं उसे छूनें का ऐसे लडकियों का करना अच्छा थोडें ही ना लगता हैं माना उसे मेरे मन के बारें में कुछ पता नहीं पर समझना तो चाहिएं ना और वो तो बस अपने-आप को टाँम-क्रूज़ ही समझता रहता हैं जैसे वो इतना स्मार्ट हैं की लडकियाँ तो बस उसके पीछें लगी रहती हैं। लेकिन वो सोचता भी तो सहीं हैं मैं ना जानें कबसे उसके पीछें लगी हूँ।

लेकिन क्या करूँ कभी वो बात बढाना चाहें तो ना बढाऊँ कैसे कहूँ फोन करके कह दूँ क्या? नहीं-नहीं ये ठीक नहीं होगा मिल के कहती हूँ पर घर्वालों से क्या कहके जाऊँगी? हाँ ट्यूशन का बहाना कर दूँगी और वैसे भी नखडें करनें में बहोत आगें हूँ और माँ को बेवकूफ़ बनाना तो बस मेरे बायें हाथ का काम हैं। यकीन मानिएं जब बच्चें बडे हो जातें तो सबसे बेवकूफ़ अपनी माँ को समझतें हैं तो मैंनें भी उनकों बेवकूफ़ समझ के बेवकूफ़ बनाना शुरू कर दिया हैं और वो भी 7 साल पहलें से। लेकिन बडी बात ये नहीं बडी बात ये हैं की अब उसे कैसे समझाऊँ?

काफ़ी असमंजस और काफ़ी नाजुक स्थिति होती हैं ये खुद को समझाना दिल को समझाना काफ़ी मुश्किल होता हैं। लेकिन परेशां-हैरान दिल काफ़ी खुश होता हैं इस वक्त। एक अज़ीब एहसास होता हैं। पहले प्यार का पहला इज़हार, जहां दिल सिर्फ़ और सिर्फ़ हाँ सुनना चाहता हैं। ऐसी ही होती हैं पहलें प्यार की उल्झनें।

..नितेश वर्मा..

..सुबह का भूला शाम को लौट आतें हैं..

..सुबह का भूला शाम को लौट आतें हैं..
..परिंदे भी आसमानों से लौट आतें हैं..

..ज़िन्दगी भर जिसनें कुछ कमाया नहीं..
..दुआओं की चक्कर में मस्जिद लौट आतें हैं..

..पढतें रहें तमाम उम्र जिस किताब को..
..मरनें पे हैं तो सबक लौट आतें हैं..

..चलते-फिरतें मुसाफिर एक कारवां बनातें हैं..
..बिछडन को जब हैं यादें लौट आतें हैं..

..तन्हा कहीं था मैं खुद से परेशां..
..मुश्किल में हो गर जाँ तो साथी लौट आतें हैं..

..भूलाया था कितनें मुद्दतों बाद जिन्हें..
..आज़ मरनें को हूँ समय पे अपनें लौट आतें हैं..

..सुबह का भूला शाम को लौट आतें हैं..
..परिंदे भी आसमानों से लौट आतें हैं..!

..नितेश वर्मा..

Tuesday, 8 July 2014

..पहलें प्यार की उल्झनें..

प्यार बहोत ही अनोखा और बहोत ही सुहावना सफ़र हैं,जो सबके ज़िन्दगी में एक बार जरूर आता है।कभी किसी के बचपन में.. तो कभी किसी के जवानी में.. तो कभी किसी के शादी के बाद.., लेकिन आता जरूर हैं। एहसास काफ़ी सुखद होता हैं दिल इन परिस्थितियों में काफ़ी नाज़ुक हो जाता हैं.. जरा-जरा सी बात पे रूठना तो रिवाज़ हो जाता हैं। पर इस प्यार की एक और अहम और काफ़ी दिल-चस्प बात होती हैं जब आपकों यानी की किसी लडकी या लडके को इसका इज़हार करना हो।

पहला प्यार अब इज़हार करना हैं क्यूंकि बिना इज़हार इकरार होनें से रहा। पर ऐसे में क्या-क्या परेशानियाँ पहल होती हैं उनमें में आपकों कुछ बताता हूँ और जो बच जाएं तो आप जरूर याद दिला दे।

आज़ हम बात पहलें पक्ष यानी के लडकों की करेंगे और कल दूसरी पक्ष लडकियों की उल्झनों पे गौर करेंगें।

बहोत मुश्किल होता हैं ना पहली मुहब्बत का इज़हार। ना जानें वो क्या कह देगी कहीं इंकार तो नहीं कर देगी। ना ना-ना ऐसे कै्से कर देगी आखिर वो भी तो मुझसे प्यार करती हैं..
माना कभी उसनें ये कहा नहीं पर उसकी जो बडी-बडी आँखें बोलती हैं ना मैनें सब-कुछ बिल्कुल उसमें साफ़-साफ़ पढा हैं। वो मेरा ही होना चाहती हैं शायद कहनें से शर्माती हैं.. खैर कोई नहीं! इन मामलों में लडके ही हमेशा से बली-के-बकरे बनतें आ रहें तो.. मैं भी सहीं। आखिर अपनें प्यार के लिएं मैं कुछ नहीं करूँगां तो कौन करेगा? पर मुश्किल हैं वो ना कह देगी तो.. और हाँ मैं उससे कहूँगा कैसे..? और उसका मुँहफ़ट भाई अगर हमारें बीच आया ना तो अच्छा नहीं होगा.. मैं पहले ही बता देता हूँ.. प्यार का इज़हार करनें जा रहा हूँ कोई मज़ाक थोडे ही ना हैं।

पता ना उसका क्या रिऐक्शन होगा, कहीं वो मुझसे नाराज़ हो के बात भी करना बंद कर देगी तो..? तब-तब मैं क्या करूँगां..? ना-ना अभी नहीं फिर बाद में कभी कोशिश करूँगां। कोइ अच्छा-सा वक्त देख के, उसे और ज़्यादा समझ के और हाँ उस चिंटू के बच्चें से लडकियों को पटानें के और भी पैंतरें सीख के। सब कहतें हैं वो लडकियों को यूं पटा लेता हैं। मैं आज़ भी हैरान रहता हूँ इस बात पे काला-कलूटा, छोटे-कद वाला आखिर लडकियाँ उससे पट कैसे जाती हैं। मेरी नज़र में तो वो बिल्कुल जाहिल,निकम्मा,आवारा और आप चाहें जो कह लो जितना बुरा वो मेरी नज़रों में हैं। खैर मुद्दा ये नहीं हैं बात मेरे पहले प्यार के पहले इज़हार की हैं।

कैसे क्या करूं? कुछ समझ नहीं आता.. वो कुछ इशारा दे दे तो बात बन जाएं पर उसे अपनें दोस्तों से फ़ुरसत कहां..? एक मैं ही तो नाकारा हूँ जो उसके प्यार के पीछें पागल रहता हूँ। पर मैंनें भी तो देखा ही हैं ना कल जी क्लासिक के मूवी में राज़ेश खन्ना नें क्या समझाया था.. लडकियों को अपना बनाना हैं तो थोडी चापलूसी कर ही लेनी चाहिएं, लडकियों को यें अच्छें लगते हैं जब कोई उनके नखडों को उठाता हैं।

कसम से बहोत गंदे और उबाऊँ नखडे होते हैं पर क्या करें हम इस आशिक दिल का। अपनें प्यार के चक्कर में उसे भी ढोता-फ़िरता हैं। पता ना आज़ मैं ना जानें कैसी-कैसी बातें कर रहा हूँ, शायद यहीं तो कहीं प्यार नहीं जब मैं उसके पास भी नहीं तो भी वो मेरे ख्यालों में समाई हुई हैं।

जानें कैसे क्या होगा? आखिर मैं कब उसे अपनें दिल का प्यार बतलाऊँगां या फ़िर यें प्यार ऐसी ही कैसे किसी कोनें में दब के रह जाऐगा और ज़िन्दगी भर मुझे टींस देता रहेगा।ना-ना मैं हर-गिज ऐसा नहीं होनें दूँगा। मैं अपनें प्यार का इज़हार करूगाँ और जल्द ही करूँगां फ़िर कैसे करूँगां?

बातें फ़िर वहीं आके रूक जाती हैं जहां से वो शुरू हुई हैं और डायरी का फिर वो एक पन्ना भर जाता हैं इस कश्मो-कश में जो मुहब्बत की दास्तां बतानें के लिएं लिखी जा रहीं हो।

..नितेश वर्मा..

Nitesh Verma Poetry

[1] ..ज़िन्दगी बर्बाद कर दिया उसने..
..मुहब्बत का नाम बता कर..
..मैं तमाम उम्र जीता रहा..
..उसमें बर्बाद होकर..!

[2] ..होता है क्या आशिकी ये बताता है मुझे..
..दिल मेरा ही लेके दिखाता हैं मुझे..
..टूट जाएं तो कोई शोर नही होता..
..दिल मेरा ही तोड के दिखाता है मुझे..!


..पानी तो मिले..

..ख्वाहिशों को मेरे किनारा मिले..
..दिल हैं टूटा क्यूं कोई सहारा मिले..

..मंगत माँग मैं घर को आया हूँ..
..मेरे अधूरी ज़िन्दगी को..
..अब तो किनारा मिलें..

..बडे शौक से सुनाता था..
..मैं अपनें किस्से-कहानी..
..पडी हैं हलक में जान..
..पानी तो मिले..

..गिरना, गिर के उठना फिर सँभल के चलना..
..ये मौसम नहीं बागबानी..
..जो कहानी को मिले..

..तुम्हारी कहीं बातें..
..सारी इफ़्क लगती हैं मुझे..
..ये वो दिल नहीं जो दिल से मिले..

..ख्वाहिशों को मेरे किनारा मिले..
..दिल हैं टूटा क्यूं कोई सहारा मिले..!

..नितेश वर्मा..

..लगता हैं नाराज़ हैं..

..सुनता नहीं वो बातें मेरी..
..लगता हैं नाराज़ हैं..

..माथें पे हैं शिकन-बूंदे..
..लगता हैं परेशान हैं..

..ऐडियाँ-घीस धूप सहता आया हैं..
..फटे-हाल हैं खडे..
..मुसाफ़िर लगता हैं नादान हैं..

..भीड से भाप लेता था..
..जो हरकतें मेरी..
..आँखें हैं मुझपे ठहरी..
..लगता हैं इल्ज़ाम हैं..

..बिकता नहीं वो भी किसी बाजारों में..
..ठहरा जो घर तेरे..
..लगता हैं हराम हैं..

..खुद से नीचा समझता हैं मुझे..
..देखा जो मुझे आज़..
..लगता हैं शर्म-सार हैं..

..मेरे मरनें पे देवदूत ना आएं लेने मुझे..
..आँखें हैं बंद मेरी..
..पर वो लगता हैं कूसूर-वार हैं..

..सुनता नहीं वो बातें मेरी..
..लगता हैं नाराज़ हैं..!

..नितेश वर्मा..

Monday, 7 July 2014

..के यहां रहता हैं कोई..

..दिखाना मुश्किल हैं..
..के यहां रहता हैं कोई..

..तुम गर गौर से देखों..
..तो देखों..
..के यहां रहता हैं कोई..

..पता पूछ के..
..तुम कहाँ चले जातें हो..
..दिल पे मेरे..
..आखिर क्यूं तुम..
..बाज़ियाँ चलातें हो..

..समझाया तो हैं..
..मैंनें तुम्हें कई बार..
..वापिस मत आओ..

..संग-ए-मर-मरें हैं..
..वो शहज़ाद..
..के यहां रहता हैं कोई..

..ये दिल हैं बाज़ार नहीं..
..कीमत की बात क्या..
..जब बातों से लगता हैं..
..के यहां रहता हैं कोई..

..दिखाना मुश्किल हैं..
..के यहां रहता हैं कोई..!

..नितेश वर्मा..

Sunday, 6 July 2014

..तो नाम मेरा साफ़ लिख देता हैं..

..मेरे हर बात पे..
..वो नामंजूरी लिख देता हैं..
..पूछूँ गर नफ़रत हैं क्या..
..तो मुहब्बत लिख देता हैं..

..कोशिशें करता हैं लाख..
..फ़िर अपनी हार लिख देता हैं..
..पूछूँ गर ज़ुर्म हैं किसका..
..तो नाम मेरा साफ़ लिख देता हैं..!

..नितेश वर्मा..

..क्या हैं ये ज़िन्दगी..

..क्या हैं ये ज़िन्दगी..
..क्यूं समझ आती नहीं..

..परिशां हैं हर शक्स..
..बात हैं क्या..
..समझ आती नहीं..

..उतरा हुआ हैं हर चेहरा दर्द में..
..बात हैं क्या..
..जो समझ आती नहीं..

..गुलिस्ता शहर आबाद हुआ करता था..
..आज़ हैं कोई क्यूं नाराज़..
..समझ आती नहीं..

..तोड लूं मैं भी खुशियों को बाग से..
..खुदा को हैं हर्ज़ क्या..
..समझ आती नहीं..

..अब जन्नत नसीब ना तो ना सहीं..
..आँचल भी तेरी माँ..
..नज़र आती नहीं..

..अब क्या करेगा..
..कोई शक्स महज़ ये साँसें ले के..
..चेहरा हैं उल्झा क्यूं..
..समझ आती नहीं..

..दो टुक ही सही..
..कोई बातें करता मुझसे..
..होती हैं मुहब्बत क्या..
..समझ आती नहीं..

..मैं थक चुका हूँ..
..ज़िन्दगी धीमी पडी हैं..
..वक्त कुछ रूक सा गया हैं..
..क्या हैं ये मौत..
..जो समझ नहीं आती..

..हटाओं सबकों दरकिनारें करों..
..मेरे हिस्सें में हो तुम..
..तो क्यूं मुझे..
..ये समझ आती नहीं..

..क्या हैं ये ज़िन्दगी..
..क्यूं समझ आती नहीं..!

..नितेश वर्मा..

Saturday, 5 July 2014

..तेरी याद कैसे..

..हर वक्त आती हैं तेरी याद कैसे..
..ना जानें खाली कमरें में..
..रह जाती तेरी याद कैसे..

..दिल बे-घर रहता हैं मेरा..
..ज़ज्बातों पे मेरे छा जाती हैं..
..ना जानें तेरी याद कैसे..

..आँखों में बसी रहती हैं..
..तेरी याद कैसे..
..रो-रो के गिराता हूँ..
..फ़िर चली आती हैं तेरी याद कैसे..

..तस्वीर को कमरें में सजाता हूँ..
..दिल में उतर जाती हैं..
..तेरी याद कैसे..

..बुरा-भला हर वक्त लिखता रहता हूँ..
..मिट जाएं दिल से मेरे..
..मरा लिखता रहता हूँ..
..बातों में हर वक्त..
..तुझे बाज़ार बना देता हूँ..

..खुद की आँखों में भी तुझे गिरा देता हूँ..
..हर वक्त तुझे भूलाता हूँ..
..सीनें में हैं ज़ख्म भरा..
..जमानें से ये राज़ छुपाता हूँ..
..हर-पल मैं खुद में जी लेता हूँ..

..पता ना रात में आ जाती हैं..
..ये तेरी याद कैसे..
..मैं जागता हूँ आँखें सो जाती हैं..
..हो जाता हूँ मैं खुद में मुक्कमल..
..आखिर कह जाती हैं मेरे अरमां..
..तेरी याद कैसे..

..हर वक्त आती हैं तेरी याद कैसे..
..ना जानें खाली कमरें में..
..रह जाती तेरी याद कैसे..!

..नितेश वर्मा..

Friday, 4 July 2014

..माँ..

माँ शब्द जितना आसान और छोटा हैं उसकी गुणवत्ता, महत्तवता उतनी ही बडी और सरल। आप समझोंगें तो समझ पाओगें की मातृत्व क्या होता हैं। माँ के बारें में लिखना आसान होता हैं पर जब माँ को शब्दों में बाँधना हो तो यह उतना ही मुश्किल हो जाता हैं जैसे की राम के चरित्र को शब्दों में बाँधना। माँ वो स्वरूप होती हैं जिसमें बच्चा उनसे अपनें जन्म से पहलें जुडा होता हैं। यानी की माँ को भगवान का साथीं या उनका रूप भी कहा जा सकता हैं। माँ अमूल्यवान और ज़िन्दगी की अहम कडी होती हैं जो अपनें बच्चें के खातिर कुछ भी करनें को तैयार रहती हैं। सारी विषम परिस्थितियों को झेंलती हैं। माँ ममता की प्रतीक होती हैं। या यों कह ले जो आप ही कहतें हैं माँ तो बस माँ होती हैं।

..सुबह से राह तके बैठी हैं..
..घर के कोनें में..
..एक तस्वीर ले के बैठी हैं..

..नम हो गए हैं दामन उसके..
..आँचल के कोनें में..
..जो सितारें ले के बैठी हैं..
.
..माँगती हैं अपनें हर दुआ में..
..अपनें बच्चें की खैरियत..
..माँ वो इंतज़ार में..
..आज़ भी आँखें लिएं बैठी हैं..! 

..इक उम्र आज़ भी बाकी हैं..

..जल गया शहर पूरा..
..वो शक्स आज़ भी बाकी हैं..

..कितनी दुआओं को ले जी रहा हैं..
..इक उम्र आज़ भी बाकी हैं..

..सताता था कभी दिल मेरा जो..
..वो दिल-ए-शहर में आज़ भी बाकी हैं..

..मैं बनाता था हर मजहब के राही अलग..
..की थीं जो अपराध..
..पश्चताप आज़ भी बाकी हैं..

..अब कुछ कहना बनता नहीं वर्मा..
..ज़िन्दगी पे मौत की इख़्तियार आज़ भी बाकी हैं..!

..नितेश वर्मा..

..हिसाब उसे आज़ करने दो..

[अग्नि-परीक्षा = जिसमें स्त्रियों को अपनी गुणवत्ता का प्रमाण धधकती अग्नि से गुजर के देना होता था। उनकें शुद्धता का प्रमाण अग्नि में प्रविष्ट होकर ही चल पाता था। रीति-रिवाज ऐसी ही थीं मैं उनका उल्लघंन नहीं कर सकता पर यह जरूर कह सकता हूँ के समाज़ में अभी तक जितनें बदलाव हुएं कोई भी स्त्रियों के पक्ष में नहीं हुएं अपितु नाम उनका ही होता लेकिन संशोधन वर्चस्व-प्रधान समाज करता हैं। पहलें जो स्थिति थीं आज़ भी वहीं हैं बस नाम और रूप बदल गए हैं, क्या करें जमाना टेक्निकल हो गया हैं ना।]

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..बातें बेमतलब की उसे आज़ करनें दो..
..बहोत दिनों बाद मिला हैं..
..गीलें-शिकवें उसे आज़ करनें दो..

..चले आएं थें जिस घर का चिराग बुझा हम..
..पकडे गए जो सरे-आम..
..हिसाब उसे आज़ करने दो..

..तेरे खातिर जिसने कांटें घोर-विरह हे राम!
..क्यूं थीं अग्नि-परीक्षा सीता की..
..थीं जो ये सवाल उसे आज़ करनें दो..

..इबादत में बैठें थे कई बार गालिब भी मौला तेरे..
..गुजरी क्यूं ज़िन्दगी तंग-ए-हाल..
..थीं जो ये मलाल उसे आज़ करनें दो..    [मलाल = मन में होनेवाला दुख]

..अमां बातों से भी पेट भरता हैं कभी किसी का..
..थीं जो नासूर-ए-ज़ख्म..
..बयां उसे आज़ करने दो..

..बेवफ़ा ही निकला वो तो क्या हर्ज़ हैं इसमें..
..थीं जो उसकी मुहब्बत..
..उसे आज करनें दो..

..अब रोकनें का भी तेरा कोई हक नहीं बनता वर्मा..
..हुई थीं जो रंज़िशें..
..पाक उसे आज करनें दो..     [पाक = पवित्र]

..बातें बेमतलब की उसे आज़ करनें दो..
..बहोत दिनों बाद मिला हैं..
..गीलें-शिकवें उसे आज़ करनें दो..!

..नितेश वर्मा..

Thursday, 3 July 2014

..हो जब खुशी तो हो कुछ दिन और..

..जद्दों-जहद में गुजरी यें ज़िन्दगानी हमारी..
..हो जब परेशानी तो हो कुछ दिन और..

..खुदा के सज़दें में बैठे हैं सब इबादत को..
..हो जब रोज़ा तो हो कुछ दिन और..

..बिगडें हैं सारें ताल्लुकात आज़..
..हो जब खफ़ा तो हो कुछ दिन और..

..क्यूं ना जानें सबकें सामनें रो देता हैं वो..
..हो जब नाशुक्रा तो हो कुछ दिन और..

..मिली जब शौहरत तो शक्स ही बदल गया..
..हो जब खुशी तो हो कुछ दिन और..

..दिल में आज़ भी वो तस्वीर पुरानी हैं..
..हो जब याद-ए-सनम तो हो कुछ दिन और..

..नितेश वर्मा..

..मिलूं जो कभी मुह तोड के रख दूं..

..मुझे ऊपर चढता देख जलते हैं सब..
..देखूं जो कभी आँख निकाल के रख दूं..

..पीठ-पीछे करतें हैं बुराईयाँ मेरी बेवकूफ़..
..मिलूं जो कभी मुह तोड के रख दूं..

..मेरें ज़िन्दगी के छुपे दर्द कुरेंदतें हैं सब..
..मिलूं जो कभी जान निकाल के रख दूं..

..मेरे हर बात को कांट देते हैं सब..
..मिलूं जो कभी जुबान निकाल के रख दूं..

..मेरे हर्श की बात करतें हैं सब..
..मिलूं जो कभी किताब निकाल के रख दूं..

..मेरे मौत की बात करतें हैं सब..
..मिलूं जो कभी बात बिगाड के रख दूं..!

..नितेश वर्मा..


Wednesday, 2 July 2014

..किसी दुकानों में सजा के रख दो तुम..

..सियासी दावपेंच समझतें हो तो समझों तुम..
..ये मुहब्बत, वफ़ादारी, दोस्ती..
..किसी दुकानों में सजा के रख दो तुम..

..हर बात पे कोई मतलब होता हैं यहां..
..दिल से निकल-कर दिमाग से सोचों तुम..

..अब लूट ही जाओगें तो क्या होगा तुम्हारा..
..बातें शर्म,हयां,लाज की..
..आखों से निकाल-कर रख दो तुम..

..कमज़ोर हैं गर हाथें तुम्हारी तो थाम लो लाठी तुम..
..कोट-कचहरी सब बकवास हैं..
..थप्पड मार दो इनको चाहें जितनें तुम..

..खून-पसीनें की कमाई खाना चाहतें हो तो लूटों तुम..
..यहां गरीबों को इंसाफ़ मिलता नहीं..
..गरीबों को लूटों तुम..

..हर-बात मेरी आज़ बकवास लगती हैं सबको..
..अपनी नज़र से उठकर खुद को देखो तुम..!

..नितेश वर्मा..

..वक्त गुजर रहा हैं..

..कहतें हैं सब यहां वक्त गुजर रहा हैं..
..मैं ठहरा रहता हूँ..
..फिर कैसे वक्त गुजर रहा हैं..

..मैं निकलता चला जाता हूँ..
..वो छूटता चला जाता हैं ..
..मैं आगें बढता हूँ वो पीछें रह जाता हैं..
..फिर वो कैसे कहतें हैं..
..वक्त धोखा दे जाता हैं..

..इमतिहान लो बैठा हम दोनों का..
..कैसे कोई आगे निकल जाता हैं..
..मैं ठहरता हूँ..
..तो वो भी ठहर जाता हैं..
..ना जानें कैसे कहतें हैं लोग..
..के वक्त गुजर जाता हैं..!

..नितेश वर्मा..

हमारी अधूरी कहानी

कभी-कभी खुद को ये समझाना बहोत मुश्किल होता हैं आखिर क्यूं कुछ कहानियाँ अधूरी ही रह जाती हैं। क्या यहीं नियति में होता हैं या फिर हम नियति मान उसे स्वीकार लेते हैं। क्यूं अधूरें राह की तरह ये कहानियाँ होती हैं, बिना किसी मंज़िल के भटकती रहती हैं। मक्सद क्या होता हैं..? आखिर इन कहानियों को कौन सुनना पसंद करता हैं..? ऐसी कहानियों का क्या? क्या यें कहानियाँ दिल को सुकूं पहोचाती हैं..?

सवाल कई होतें हैं लेकिन कोई जवाब ऐसा नहीं होता जो इस दिल को सुकूं दे सके और उस अधूरें कहानी को भी कहीं ना कहीं पूरा कर दे।दिल बेचैंन रहता है। किसी की बातें बेचैंन कर देती है। हर-वक्त बस वहीं बात सीनें में चलती रहती हैं आखिर आगे क्या हुआ होगा उनके साथ। कैसे और ना जाने कब, जैसे कई सवाल।

हर वक्त नज़र के सामनें जैसे एक उल्झन हो जैसे वो कहानी मेरी हो खुद को देखूं तो परेशानी दिल की चेहरें पे साफ नज़र आ जाए। दिल कहीं लगता नहीं। इसी सोच में डूबा रहता हैं आखिर यें मेरे साथ होता तो कैसा होता उस दुखद अनुभव के बारें में सोच के ही दिल बैठा जाता हैं।

लेकिन तब-तक ये बात अनसुल्झी रहस्य या मिथ्या की तरह होती हैं जब-तक आप खुद-ब-खुद इससे रू-ब-रू नहीं होते। ऐसी कहानियों से मैं भी दूर रहता था।

                 
देर से ही लेकिन एक दिन ऐसा आया जब मुझे समझ आया कुछ कहानियाँ अधूरी ही अच्छी लगती हैं। वो अधूरी हैं तभी सहीं है। उनका वो अधूरापन ही अच्छा लगता हैं वो अधूरें होके भी पूरा बनें रहतें हैं। जैसे किसी अंज़ान रास्तें पे आगें ना चलनें से वो मंज़िल की ओर ना ले जाती हो।

आईयें आपको बिल्कुल ऐसी कहानी सुनाता हूँ जो अधूरी हो के भी पूरी हैं। वो अपनी कहानी के जरिएं एक संवाद कह जाऐगी जो उस अधूरेपन को आपके दिल से मरहम की तरह जुड के उसकी चोट को निकाल देगा।


ये कहानी मेरें और मेरे प्यार की हैं.. पहली नज़र का प्यार हैं.. दिल कुछ सोचता नहीं.. मुहब्बत हो जाती हैं.. मुहब्बत अब इकरार होने को हैं.. पर वक्त वहीं आ के जैसे मेरे लिएं रूक जाती हैं.. एक अज़नबी शक्स का आगमन होता हैं जो मेरे प्यार का असल हिस्सा हैं, एक अहम पहलूं।


हालातें इतनी संगीन हैं.. वो उसके साथ जुडने को मजबूर या यों कहों.. तैयार हैं। शायद उसे मेरी मुहब्बत के इज़हार का इंतज़ार हो.. या मुझे लेकर वो ऐसा कुछ सोचती ही ना हो.. मैं ही शायद कहीं ना कहीं बेवकूफ़ हूँ जो एक ख्वाब ढोता चला जा रहा हूँ।

मैं उसके बारें क्या सोचता हूँ.. शायद उसनें कभी जाना ही नहीं.. कोई तो इशारा करती आज़.. एक बार तो कहती.. लेकिन अब क्या..? अब कुछ कहनें का फ़ायदा ही क्या..? दिल टूट चूका हैं.. हालतें मेरे समझ से बाहर की हैं।
सब बिगडा हुआ हैं, शायद ऐसा ही होता हैं.. सच कहतें हैं कुछ कहानियाँ अधूरी ही रह जाती हैं। लेकिन मेरा क्या..? मैं कोई कहानी नहीं..? मैं कोई देवदूत नहीं जो बस इक मकसद को पूरा करनें को आया हो..? नियति रचनें को आया हो.. आज़ तीन ज़िन्दगीयाँ एक अज़ीब से मोड पे हैं.. कुछ कहना अखबारी हो जाऐगा.. खामोशी.. इस हालत के पक्ष में हैं। अज़ीब दास्तां हैं आखिर क्यूं होता हैं ऐसा..? आईयें देखतें हैं हम..


                                               #  हमारी अधूरी कहानी  #


..मिले जैसे-तैसे किसी मोड पे..
..करनें लगे बातें हम खुलके जोर से..
..शरम हमें अब किस बात का..
..जुडनें लगे जब हम दिल की डोर से..

..बातें ना बनाओं..
..आँखें ना दिखाओ..
..हैं जो ये कहानी तुम्हारी..
..तो कहके सुनाओ..

..कहनें को आएं जब कहानी हम..
..हिस्सों-हिस्सों में बाँट गएं कहानी हम..
..दिल के दरमयां इक बात बची हैं..
..अधूरें हम और रह गई अधूरी ये ज़ुबानी..
..कहनें को आएं जब हम..
..हमारी अधूरी कहानी..!

..नितेश वर्मा..



Tuesday, 1 July 2014

..पर बहकाता हैं कोई..

..हर वक्त आता हैं कोई..
..मुश्किल हैं कहना..
..पर बहकाता हैं कोई..

..मैं जुल्फ़ें संवारूं..
..खुद को रिझांऊ..
..सपनों में आकें मेरे..
..परिशां कर जाता हैं कोई..

..होता हैं क्या..
..कैसे कहूँ..
..हाथों में हाथ..
..दे जाता हैं कोई..

..हर वक्त आता हैं कोई..
..मुश्किल हैं कहना..
..पर बहकाता हैं कोई..!

..नितेश वर्मा..

..दिल पे हो बोझ ये अच्छा नहीं लगता..

..बातें हैं बहोत पर कुछ कहना अच्छा नहीं लगता..
..चलती हैं साँसें पर जीना अच्छा नहीं लगता..

..सँभालतें हैं सब अपनें हिस्सें का दर्द..
..दिल पे हो बोझ ये अच्छा नहीं लगता..

..सलीकें हैं बहोत नेकियों पे चलनें के..
..रास्ता हो कठिन तो चलना अच्छा नहीं लगता..

..भगवान के घर देर हैं अँधेर नहीं..
..किस्मत के साथ मिलती हैं सब..
..ऐसी दुआ हो तो दुआ अच्छा नहीं लगता..

..कह के जो तुम गए थें आओगें कभी..
..मरनें पे हैं जां मज़ाक ये अच्छा नहीं लगता..

..कर्म के अनुसार मिलतें हैं सबको फल यहां..
..जब अंगूर हो खट्टें तो मेहनत अच्छा नहीं लगता..

..आज़ भी परेशानियों के मारें हैं सब..
..बात हैं अहम पर कहना अच्छा नहीं लगता..!

..नितेश वर्मा..