प्रशासनिक वादें ऐसे वादें जो प्रशासन के उम्मीदवार अपनें चुनावी पहल से पहलें उस क्षेत्र के निवासी जनता से करते हैं। लेकिन वो वादें अधिकतर छूटें जमीं की नींव पर तैयार की जाती हैं जो बस दिखावटी और बनावटी होते हैं। उनका किसी नए सपनें और साकारात्मक रूप से कोई वास्तविक संबंध नहीं होता। और आप कुछ कह ले जैसे मासूम या मूर्ख जनता इनकी प्रमुख ज़िम्मेवार होते हैं। कहनें पर कहतें हैं क्या करूं कोई तो यहां अच्छा नहीं..
..जो कुछ दे देता हैं उसी को वोट दे देते हैं..
..या फिर वो जो उनके जात का हो..
..आखिर जब वोट देना हक हैं ही तो वो हक अपनें जात के पक्ष में गिरें तो गलत ही क्या हैं जैसे अनेक बहानें। लेकिन मुद्दें का विषय यह नहीं बात उनकें मासूमियत और छोटें सोच की नहीं बात आज़ अपनें गाँव,शहर या देश की हैं। फर्क पडता हैं इंसा के सोच से ही समाज़ का स्वरूप होता हैं। दुनिया बदल रहीं हैं लोग बाहरी देश से प्रभावित होकर वहां बसनें चले जा रहें हैं।
..लायक अभियंताओ,चिकित्सकों,कारीगारों जैसे बहोत से देश के भावी भविष्य अपनें बदहाली को देखतें हुएं देश को छोड-कर कहीं और रूख कर लेते हैं। शायद वो समझदार हैं जो अपनें ज़िम्मेदारियों से पीछा छुडा लेते हैं। लेकिन काफी पढनें और समझनें के बाद बात यह सामनें आई की जब वो यहां अपनें देश में रोज़गार ढूंढतें हैं तो काफ़ी मुश्क्कत के बाद तो कभी उनकों कोई रोज़गार मिलता हैं और वो इतना कम होता जिसमें उनका और उनके परिवार का निर्वाह नहीं या बहोत मुश्किल तरीकों से हो पाता हैं। समझ नहीं आता वजह क्या हैं? किसी दिन और आऊंगाँ इस मुश्किलात के तह से तो अच्छें से लिख पाऊंगाँ।
..मैंनें पत्थर फेंक के देखा..
..अब शीशा उसका टूटता नहीं..
..जाज़िम अब और कितनें ज़ुर्म करेगा..
..घर जो हैं उसका टूटता नहीं..!
..माँगनें आया था वो जो वोट मेरा..
..नज़रों में मेरे अब आता नहीं..
..ना जानें कैसे वादें पूरें करेगा अपनें..
..बाँन्ड भरकें जब वो जाता नहीं..
..बहोत परेशान हूँ तो कुछ कह देता हूँ..
..वैसे भी मेरी कोई सुनता नहीं..
..अब जब कोई ना देखें तो बात अलग..
..गरीबों का क्या अमीरों का भी पेट भरता नहीं..!
..नितेश वर्मा..
..जो कुछ दे देता हैं उसी को वोट दे देते हैं..
..या फिर वो जो उनके जात का हो..
..आखिर जब वोट देना हक हैं ही तो वो हक अपनें जात के पक्ष में गिरें तो गलत ही क्या हैं जैसे अनेक बहानें। लेकिन मुद्दें का विषय यह नहीं बात उनकें मासूमियत और छोटें सोच की नहीं बात आज़ अपनें गाँव,शहर या देश की हैं। फर्क पडता हैं इंसा के सोच से ही समाज़ का स्वरूप होता हैं। दुनिया बदल रहीं हैं लोग बाहरी देश से प्रभावित होकर वहां बसनें चले जा रहें हैं।
..लायक अभियंताओ,चिकित्सकों,कारीगारों जैसे बहोत से देश के भावी भविष्य अपनें बदहाली को देखतें हुएं देश को छोड-कर कहीं और रूख कर लेते हैं। शायद वो समझदार हैं जो अपनें ज़िम्मेदारियों से पीछा छुडा लेते हैं। लेकिन काफी पढनें और समझनें के बाद बात यह सामनें आई की जब वो यहां अपनें देश में रोज़गार ढूंढतें हैं तो काफ़ी मुश्क्कत के बाद तो कभी उनकों कोई रोज़गार मिलता हैं और वो इतना कम होता जिसमें उनका और उनके परिवार का निर्वाह नहीं या बहोत मुश्किल तरीकों से हो पाता हैं। समझ नहीं आता वजह क्या हैं? किसी दिन और आऊंगाँ इस मुश्किलात के तह से तो अच्छें से लिख पाऊंगाँ।
..मैंनें पत्थर फेंक के देखा..
..अब शीशा उसका टूटता नहीं..
..जाज़िम अब और कितनें ज़ुर्म करेगा..
..घर जो हैं उसका टूटता नहीं..!
..माँगनें आया था वो जो वोट मेरा..
..नज़रों में मेरे अब आता नहीं..
..ना जानें कैसे वादें पूरें करेगा अपनें..
..बाँन्ड भरकें जब वो जाता नहीं..
..बहोत परेशान हूँ तो कुछ कह देता हूँ..
..वैसे भी मेरी कोई सुनता नहीं..
..अब जब कोई ना देखें तो बात अलग..
..गरीबों का क्या अमीरों का भी पेट भरता नहीं..!
..नितेश वर्मा..
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