Thursday, 24 July 2014

..समुन्दर की लहरें.. [..Samundar Ki Lahrein..]

समुन्दर के किनारें शाम का समय कितना अज़ीब होता हैं ना? लहरें बेबाक आती-जाती रहती हैं जैसे कुछ कहना-सुनना चाहती हो। या फिर कभी ऐसा लगता हैं जैसे वो मेरे सारें गमों.., गीलों.., रूसवों.. को ले जा के अपनें किसी अंत में मिला देना चाहती हो। बिना किसी कीमत के मेरें सारी परेशानियों को मुझसे अलग कर देना चाहती हो। सिर्फ एहसास ही एहसास बिना कुछ कहें सिर्फ मेरी और मेरी ही सुनती जाती हों। जैसे कोई हमदम हो.. या पुरानी जन्म का प्यार.. या अपनों-सा कोई रिश्ता। बहोत कठिन और जटिल.. समझना जैसे बहोत मुश्किल होता हैं। इसी सोच में डूबा रहूँ तो बेवजह आकें बारिशों की बूंदों की तरह चेहरें को छूं जाना.. जैसे शरीर या यों कहिएं ज़िन्दगी में एक नयी ताज़गी भर देना। अज़ीब-सा एहसास.. पन्नों पें जिसे सजाना बहोत मुश्किल हो.. सिर्फ तेज़ बहती हवाएं और समुन्दर की बेबाक तेज़ लहरें। बहोत अजीब स्वभाव.. कभी-कभी इतनी बेरूख जैसे सब तबाह कर दें कभी बिल्कुल शांत.. जैसे किसी के यादों में खोएं हुएं।

आपको पता हैं मुझे रेंत पे अपनी कलाकारी करनें का बहोत शौक हैं। लेकिन यें कलाकारी तभी अच्छें से निखर पाती हैं जब मैं किसी मुश्किलात में होता हूँ और उस मुश्किल को जब मैं अपनें दिल से निकालनें की कोशिश करता हूँ.. वो दर्द.. वो बात.. बखूबी दिल से मेरे तिल-तिल करके निकल भी जाती हैं। लेकिन तभी अचानक मेरें दिल के गमों को धोतें हुएं हर बार कि.. की हुई मेरी मेहनत को.. मेरी बनाई मेरी प्यारी-सी तस्वीर को.. मेरा दर्द समझ कर.. अपनें बूंदों से मिटानें की कोशिश.. जैसे मेरे दर्द उसें थोडा भी अच्छें ना लगतें हो। इतना अपनापन इतना लगाव आँखें भर-सी जाती हैं.. लबों पे एक हल्की-सी मुस्कान आ जाती हैं.. गला भरा हुआ होता हैं जैसे कुछ बोलूं.. तो बस दर्द ही बाहर निकलें।

आज़ मैं यहां आया भी उदास था.. बेचैंन था.. लेकिन जानें पे उदासी साथ तो हैं पर वो मलाल नहीं जो आनें पे मेरे साथ था.. अब वो कहीं दिल में लगता नहीं। जैसे इक सुकूं-सा मेरे दिल में हैं। धीरें-धीरें जैसे शाम का वक्त ढलता हैं.. हवाएं उतनी ही खुशमिज़ाजी होती चली जाती हैं। एक अज़ीब-सा सुरूर होता हैं उन हवाओं में जुल्फें बे-खौफ लहराती हैं.. मन मदहोश-सा हो जाता हैं.. रुह को एक कमाल का सुकूं मिलता हैं। लेकिन मेरी तरह समुन्दर के साथ ऐसा कुछ भी नहीं। जब मैं आया था तब भी वो वैसा ही था.. जैसा अभी जानें के वक्त हैं। जैसे ना मेरे आनें की खुशी और ना मेरे जानें का गम.. सबसे उपर.. विलासताओं से परें। कितना कुछ छुपा के बैठना और एकदम-सा शांत रहना.. मेरे साथ ऐसा क्यूं नहीं होता? क्यूं दिल मेरा बेचैंन रहता हैं। कभी नाराज़ होता हैं तो दिल इकदम सा सहम जाता हैं ना-जानें कितनें तबाह होगें, घर तो अलग ना जानें कितनें ज़िन्दगीयाँ बर्बाद होगें। अखिर कब-तक कोई सहता हैं शायद ये समुन्दर भी एक वक्त आकर टूट जाऐगा क्या?

..दिल की खामोशियों को कहती हैं ये लहरें..
..कभी नाराज़ तो कभी खुश होती हैं ये लहरें..
..छूकर जो चली जाती हैं मेरे मन को कभी ये लहरें..
..दिल रहता हैं बेचैंन और सुकूं दे जाती हैं ये लहरें..

..नितेश वर्मा..

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