मन बेचैंन सा हैं.. जैसे कोई गहरी प्यास लगी हो.. राहत की कुछ-एक साँसें भी अब दुर्लभ हो.. कैसा मौसम हो गया हैं। शामें भी अब सवर के आती नहीं ज़िन्दगी मुहाल जैसे बदसलूकी को प्रदर्शित करती हो। अब तो कमरें के ए.सी., पंखें भी उदास करतें हैं। विलासता ज़िन्दगी को अब घृणित करती हैं.. मन सकुचाया सा रहता हैं। अंधेरें कांटने को दौडते हैं सूरज की डूबती चमक आँखों में इक जलन भरतें-भरतें डूबती जाती हैं जैसे कोई नाराज़गी.. कोई दर्द.. जो बिन मरहम तडपतें रहे है ना जानें कबसे और किस इंतज़ार में ठहरें थें.. आज़ खुल के बरसनें को जो तैयार हुएं थें।
शायद मौसम की गर्मी बढ रही हैं। शायद दिन भर घर-दफ्तर करनें से ऐसा हो गया हो। शामें भी नाराज़ लगती हैं। अब तो घर से निकल के देखना ही चाहिएं क्या मौसमों में भी अब वो बात नहीं। लेकिन हवाएं आज़ भी तो वैसी ही चल रही हैं जैसे कभी जब मैं अपनें दोस्तों के साथ किसी हाईवे, किसी बिच या किसी खुलें मैदान में महसूस किया करता था। उन हवाओं के संग उड के कहीं और जानें की जिद.. क्यूं आज़ सब यादें बनकर चुभती हैं। क्या ज़िन्दगी अब बस विवश्ता का नाम होकर रह गयी हैं। पैसे छापनें, बेचने, कमानें, मतलब मुशक्कत में ही रहना रिवाज हो गया हैं। दिल कबसे और ना जानें कब-तक बेचैंन हो कुछ कहा जानें जैसा कुछ भी तो नहीं। राज़ें भले से बदल गए हो तस्वीर मगर आज़ भी वही पुरानी हैं।
हवाएं रूहानी हैं अब भी सुकूँ देती हैं। ताज़गी भरना तो जैसे उनका प्रचलन हैं। वही औपचारिकता, वही वंदिता, वही बात, वही समाज सब तो वही हैं। दिल या मन जो कहो शायद बदला-बदला सा, अब कही सुख नहीं चैंन नहीं। सिर्फ एक नाराजगी जो आज़ भी शामों में बखूबी नज़र आती हैं। जमाना आगे बढ गया हैं मगर रूह को जो सुकूँ दे वो तिलिस्म आज तक अंजान हैं। मन जब उदास हैं शामें भी नाराज़ हैं। उदासीनता शब्दों में नहीं कही जा सकती सिर्फ और सिर्फ इन्हें महसूस किया जा सकता हैं। परेशानियाँ भी बदलतें रूप का हल देती हैं।
..नाराज़ शामें हैं कोई दिल से मेरा पता पूछों..
..मेरी ख्वाहिशों में जो हैं उसे सुकूँ का रास्ता पूछों..
..नितेश वर्मा..
शायद मौसम की गर्मी बढ रही हैं। शायद दिन भर घर-दफ्तर करनें से ऐसा हो गया हो। शामें भी नाराज़ लगती हैं। अब तो घर से निकल के देखना ही चाहिएं क्या मौसमों में भी अब वो बात नहीं। लेकिन हवाएं आज़ भी तो वैसी ही चल रही हैं जैसे कभी जब मैं अपनें दोस्तों के साथ किसी हाईवे, किसी बिच या किसी खुलें मैदान में महसूस किया करता था। उन हवाओं के संग उड के कहीं और जानें की जिद.. क्यूं आज़ सब यादें बनकर चुभती हैं। क्या ज़िन्दगी अब बस विवश्ता का नाम होकर रह गयी हैं। पैसे छापनें, बेचने, कमानें, मतलब मुशक्कत में ही रहना रिवाज हो गया हैं। दिल कबसे और ना जानें कब-तक बेचैंन हो कुछ कहा जानें जैसा कुछ भी तो नहीं। राज़ें भले से बदल गए हो तस्वीर मगर आज़ भी वही पुरानी हैं।
हवाएं रूहानी हैं अब भी सुकूँ देती हैं। ताज़गी भरना तो जैसे उनका प्रचलन हैं। वही औपचारिकता, वही वंदिता, वही बात, वही समाज सब तो वही हैं। दिल या मन जो कहो शायद बदला-बदला सा, अब कही सुख नहीं चैंन नहीं। सिर्फ एक नाराजगी जो आज़ भी शामों में बखूबी नज़र आती हैं। जमाना आगे बढ गया हैं मगर रूह को जो सुकूँ दे वो तिलिस्म आज तक अंजान हैं। मन जब उदास हैं शामें भी नाराज़ हैं। उदासीनता शब्दों में नहीं कही जा सकती सिर्फ और सिर्फ इन्हें महसूस किया जा सकता हैं। परेशानियाँ भी बदलतें रूप का हल देती हैं।
..नाराज़ शामें हैं कोई दिल से मेरा पता पूछों..
..मेरी ख्वाहिशों में जो हैं उसे सुकूँ का रास्ता पूछों..
..नितेश वर्मा..
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