क्यूं परेशानियाँ, अपराधें, बकवासें सब ये लडकियाँ सुनें। क्यूं आखिर वो अबला का धब्बा अपनें सर मढ कर उसे ता-उम्र झेंलती रहीं। बदलाव लातें हैं सब..
सारी पार्टियाँ..
जितनी समाज़ उतनी बकवास कोई काम का नहीं निकलता।
कभी बलात्कार तो कभी दंगों का शिकार क्या यहीं तक सिमट के रह गई हैं हम और हम लडकियों की ज़िन्दगीयाँ। क्या हमारी कहानी बस इतिहास के पन्नों में सज़ानें मात्र हैं? हमारें दुखों को दिखानें मात्र हैं? क्या हमारी कोशिशें नाकामयाबियाँ की जुबाँ बोलेगीं। क्यूं हम सिर्फ दया, आत्मीयता और गंभीरता का रूप लें। क्या लडकियों के ज़िन्दगीयों के कोई मायनें नहीं होतें। क्या उन्हें लडकों की तरह खुल के जीनें का हक नहीं? सपनें जीनें का शौक नहीं? सिर्फ उलझ के रहना और बिखर के टूट जाना बस यहीं तक हैं हम लडकियों की ज़िन्दगीयाँ।
यहाँ गर किसी लडकी के साथ बलात्कार हो जाता हैं तो मीडियां, समाज़, रिश्तेंदार, यहां तक की अपनें भी उससे कट के रहना शुरु कर देते है और कुसूरवार उस लडकी को बनना पडता हैं और वहीं वो लडका अपनें ज़िन्दगी को बखूबी उसी ढंग से जीता हैं जिससे पहलें तक वो जीता रहा हैं। क्या कारणें हैं आखिर तर्क क्या होतें हैं?
कोई कहता हैं जरूर लडकी नें भडकीलें कपडे पहनें हो और यें कोई..
कोई और नहीं..
वहीं राज़नेता होतें हैं जो ऐसे कपडों को बनानें के प्रस्ताव का समर्थन करतें हैं और उसमें बकायदा अपना हिस्सा भी बना लेते हैं।
तो कभी कोई कहता हैं लडकी नें उकसाया होगा वो लडकी जो अपनी इज़्ज़त की गुहार करतें-करतें या तो मर जाती हैं या एक सदमें में हो जाती हैं ऐसी बेबाक बातें उन लोगों से अधिकतर सुननें को मिलतें हैं जिनकें घर के बेटियों-बहुओं के ना-जानें ऐसे कितनें अनुभव हो जो अब वो इस कांड पे समाज़ को सुना के बताना चाहतें हो। ऐसे ही जितनें लोग उतनें रंग जितनें रूप उतनें बातें।
भला कोई क्या कर सकता हैं इन मुश्किलातों में अक्सर लोग मुझसे यहीं पूछ्तें हैं। उनका कहना ये होता हैं वर्माजी घर पे बैठ के लिखना और उससे मुक्ति पा लेना जैसे रुह को सुकूं मिल जाएं तो आप भी हमसे कौन से कम हैं? आप भी कहीं ना तो कहीं वहीं बलात्कारी के रूप में समाज़ में पल रहें हैं। आपकों पता हैं वर्माजी आप एक ख्याली दुनियाँ में जीतें हैं जहां बस आप ही बोल या सुन सकतें हैं आपनें ना जाने कैसा माहौल तैयार किया हुआ हैं की आप समाज़ से अलग होकर सोचना शुरु कर देते हैं, अब हम आपकी इस बात का क्या कहें। सच भी कहतें हैं सब मैं निरूत्तर सा हो जाता हूँ कहीं ना कहीं मैं भी तो जिम्मेवार हूँ।
एक वाक्या याद आ रहा हैं इस संर्दंभ में वो मैं आपको सुनाता हूँ मेरे एक मित्र हैं जो कि इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत हैं एक दिन हम-दोनों में ऐसे ही बहस हो रहीं थीं बलात्कार की एक मुद्दें पर और परिणाम-तर्क ऐसे निकलें जिसे सुन के मैं खुद हैरान था।
मैनें उनसे कहा था अरे! आपका सिस्टम तो बस सो-सा गया हैं अब कुछ काम का नहीं रहा, ना जानें इतनी बलात्कारें कैसे हो जाती हैं आप लोग आल-आउट के साथ म्यूज़िक लाउड करके सोते हैं क्या?
मेरे व्यंग्ता से नाराज़ होतें हुएं मेरे मित्र ने कहा किसी पे उंगली उठाना बहोत आसान हैं वजह ना भी हो तो बखेडा खडा करनें में लगता ही क्या हैं? और वैसे भी तो आप लोग आम आदमी हो आप लोग ही कुछ क्यूं नहीं कर लेते। जब काम करनें की बात आती हैं तो घर में कभी माँ तो कभी बीबी के आँचल में सर छुपा के बैठ जातें हैं। गंभीरता-सा मेरी बातों को लेने की जरूरत नहीं हैं। बस आप उन लोगों का रूप, हुलियां या तस्वीर ही दिखा दिजिएं जिसनें हम उन दरिंदों को पकड सके।
आखिर कोई तो रूप होता होगा ना आप-लोग तो सब जानतें ही होंगें इतना कुछ लिखा-पढा हैं आप लोगों ने.. अपनी मंडली के लोगों से पूछ के बतानें का कष्ट करें। यदि आपका सुझाव कारगर हुआ तो हम आपकों सम्मानित भी करवानें की कोशिश करेंगे आखिर तो लोगों के सुझाव से ही तो ये समाज़ चल रहा हैं।
वर्मा भाई किसी के मन को पढना बहोत मुश्किल होता हैं कब उसकी मन की अच्छी भावनाएं बदलकर एक वैसियहत का रूप ले ले कोई नहीं जानता। मन तो चंचल होता ही लेकिन जब इंद्रियाँ उनका समर्थन अपनें स्वाभिक रूप को छोडकर कहीं और चली जाएं तो उसका कोई उपाय नहीं होता। बलात्कार अधिकतर कमजोरों के साथ होता हैं अगर कोई उतना ही सामर्थ की कोई महिला सामनें खडी हो जिसे अच्छी प्रशिक्षण प्राप्त हो तो इससे खुद को बचाया जा सकता हैं। हांलाकि इससे यह बंद नहीं पर कम जरूर हो जाऐगा।
तब यह बलात्कार जो आम खबरों की तस्वीर लिएं अखबार के पन्नों पे किसी अबला लडकी की कहानी को नहीं उसकी बहादुरी को प्रदर्शित करेगा।
बात भी काफी सही थें सारें तर्क लाजबाव थें आखिर कोई समाज़ इतना सब कुछ जानतें हुएं कैसे अपनें एक के किएं पे शर्मिन्दगीं को महसूस करता हैं। यहां और भी ना जानें ऐसे कितने उपाय हैं जिनका विश्लेषण नहीं किया गया हैं जैसे लिंग-शिक्षा, प्रशासन और समाज़ की बढती जिम्मेदारियों वाली पार्टियां इत्यादि।
मेरा भी यहीं मानना हैं लडकियाँ अधिकतर इस दुष्परिणाम का शिकार अपनें अबलेपन के कारण होती हैं उनकी ना-समझी उनको यौन-शिक्षा के ना मिलनें से होती हैं। अगर जब कहीं उजाला नहीं हैं तब कहीं अंधेरें की अस्तित्व हैं, यदि कहीं ज़िन्दगी नहीं हैं तो मौत का अस्तित्व हैं, वैसे ही अगर आप चाहतें हैं बलात्कार का अस्तित्व ना हो तो आपको जागरूक बनना होगा और यदि आप जागरूक होतें हैं तो हज़ार हल आपकें सामनें नज़रें झुकाएं शर्मिन्दगीं से खडें मिलेंगे। बस इतना ही कुछ कहना चाहता था, यदि कोई लेखक एक स्त्री के दर्द को नहीं समझ सकता तो वह कभी एक अच्छा लेखक नहीं हो सकता।
#------------------------------------------------#
..हर फूल हर चमन की मुस्कान मेरी बिटियां..
..मेरी ज़िन्दगी की शान-ए-बयान मेरी बिटियां..
..बकवासी बातों से कितनी आगें हैं मेरी बिटियां..
..अखबारों की जगह अब चाँद पे हैं मेरी बिटियां..
..सजता अब जो कोई शाम-ए-शमां मेरी बिटियां..
..पीछें तेरा ही नाम लगा दिखता हैं मेरी बिटियां..
..अब तू मुस्कुराती हैं जो पहचान हैं मेरी बिटियां..
..आज़ तेरे ही नाम से नाम हूँ ये जान मेरी बिटियां..
..नितेश वर्मा..
सारी पार्टियाँ..
जितनी समाज़ उतनी बकवास कोई काम का नहीं निकलता।
कभी बलात्कार तो कभी दंगों का शिकार क्या यहीं तक सिमट के रह गई हैं हम और हम लडकियों की ज़िन्दगीयाँ। क्या हमारी कहानी बस इतिहास के पन्नों में सज़ानें मात्र हैं? हमारें दुखों को दिखानें मात्र हैं? क्या हमारी कोशिशें नाकामयाबियाँ की जुबाँ बोलेगीं। क्यूं हम सिर्फ दया, आत्मीयता और गंभीरता का रूप लें। क्या लडकियों के ज़िन्दगीयों के कोई मायनें नहीं होतें। क्या उन्हें लडकों की तरह खुल के जीनें का हक नहीं? सपनें जीनें का शौक नहीं? सिर्फ उलझ के रहना और बिखर के टूट जाना बस यहीं तक हैं हम लडकियों की ज़िन्दगीयाँ।
यहाँ गर किसी लडकी के साथ बलात्कार हो जाता हैं तो मीडियां, समाज़, रिश्तेंदार, यहां तक की अपनें भी उससे कट के रहना शुरु कर देते है और कुसूरवार उस लडकी को बनना पडता हैं और वहीं वो लडका अपनें ज़िन्दगी को बखूबी उसी ढंग से जीता हैं जिससे पहलें तक वो जीता रहा हैं। क्या कारणें हैं आखिर तर्क क्या होतें हैं?
कोई कहता हैं जरूर लडकी नें भडकीलें कपडे पहनें हो और यें कोई..
कोई और नहीं..
वहीं राज़नेता होतें हैं जो ऐसे कपडों को बनानें के प्रस्ताव का समर्थन करतें हैं और उसमें बकायदा अपना हिस्सा भी बना लेते हैं।
तो कभी कोई कहता हैं लडकी नें उकसाया होगा वो लडकी जो अपनी इज़्ज़त की गुहार करतें-करतें या तो मर जाती हैं या एक सदमें में हो जाती हैं ऐसी बेबाक बातें उन लोगों से अधिकतर सुननें को मिलतें हैं जिनकें घर के बेटियों-बहुओं के ना-जानें ऐसे कितनें अनुभव हो जो अब वो इस कांड पे समाज़ को सुना के बताना चाहतें हो। ऐसे ही जितनें लोग उतनें रंग जितनें रूप उतनें बातें।
भला कोई क्या कर सकता हैं इन मुश्किलातों में अक्सर लोग मुझसे यहीं पूछ्तें हैं। उनका कहना ये होता हैं वर्माजी घर पे बैठ के लिखना और उससे मुक्ति पा लेना जैसे रुह को सुकूं मिल जाएं तो आप भी हमसे कौन से कम हैं? आप भी कहीं ना तो कहीं वहीं बलात्कारी के रूप में समाज़ में पल रहें हैं। आपकों पता हैं वर्माजी आप एक ख्याली दुनियाँ में जीतें हैं जहां बस आप ही बोल या सुन सकतें हैं आपनें ना जाने कैसा माहौल तैयार किया हुआ हैं की आप समाज़ से अलग होकर सोचना शुरु कर देते हैं, अब हम आपकी इस बात का क्या कहें। सच भी कहतें हैं सब मैं निरूत्तर सा हो जाता हूँ कहीं ना कहीं मैं भी तो जिम्मेवार हूँ।
एक वाक्या याद आ रहा हैं इस संर्दंभ में वो मैं आपको सुनाता हूँ मेरे एक मित्र हैं जो कि इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत हैं एक दिन हम-दोनों में ऐसे ही बहस हो रहीं थीं बलात्कार की एक मुद्दें पर और परिणाम-तर्क ऐसे निकलें जिसे सुन के मैं खुद हैरान था।
मैनें उनसे कहा था अरे! आपका सिस्टम तो बस सो-सा गया हैं अब कुछ काम का नहीं रहा, ना जानें इतनी बलात्कारें कैसे हो जाती हैं आप लोग आल-आउट के साथ म्यूज़िक लाउड करके सोते हैं क्या?
मेरे व्यंग्ता से नाराज़ होतें हुएं मेरे मित्र ने कहा किसी पे उंगली उठाना बहोत आसान हैं वजह ना भी हो तो बखेडा खडा करनें में लगता ही क्या हैं? और वैसे भी तो आप लोग आम आदमी हो आप लोग ही कुछ क्यूं नहीं कर लेते। जब काम करनें की बात आती हैं तो घर में कभी माँ तो कभी बीबी के आँचल में सर छुपा के बैठ जातें हैं। गंभीरता-सा मेरी बातों को लेने की जरूरत नहीं हैं। बस आप उन लोगों का रूप, हुलियां या तस्वीर ही दिखा दिजिएं जिसनें हम उन दरिंदों को पकड सके।
आखिर कोई तो रूप होता होगा ना आप-लोग तो सब जानतें ही होंगें इतना कुछ लिखा-पढा हैं आप लोगों ने.. अपनी मंडली के लोगों से पूछ के बतानें का कष्ट करें। यदि आपका सुझाव कारगर हुआ तो हम आपकों सम्मानित भी करवानें की कोशिश करेंगे आखिर तो लोगों के सुझाव से ही तो ये समाज़ चल रहा हैं।
वर्मा भाई किसी के मन को पढना बहोत मुश्किल होता हैं कब उसकी मन की अच्छी भावनाएं बदलकर एक वैसियहत का रूप ले ले कोई नहीं जानता। मन तो चंचल होता ही लेकिन जब इंद्रियाँ उनका समर्थन अपनें स्वाभिक रूप को छोडकर कहीं और चली जाएं तो उसका कोई उपाय नहीं होता। बलात्कार अधिकतर कमजोरों के साथ होता हैं अगर कोई उतना ही सामर्थ की कोई महिला सामनें खडी हो जिसे अच्छी प्रशिक्षण प्राप्त हो तो इससे खुद को बचाया जा सकता हैं। हांलाकि इससे यह बंद नहीं पर कम जरूर हो जाऐगा।
तब यह बलात्कार जो आम खबरों की तस्वीर लिएं अखबार के पन्नों पे किसी अबला लडकी की कहानी को नहीं उसकी बहादुरी को प्रदर्शित करेगा।
बात भी काफी सही थें सारें तर्क लाजबाव थें आखिर कोई समाज़ इतना सब कुछ जानतें हुएं कैसे अपनें एक के किएं पे शर्मिन्दगीं को महसूस करता हैं। यहां और भी ना जानें ऐसे कितने उपाय हैं जिनका विश्लेषण नहीं किया गया हैं जैसे लिंग-शिक्षा, प्रशासन और समाज़ की बढती जिम्मेदारियों वाली पार्टियां इत्यादि।
मेरा भी यहीं मानना हैं लडकियाँ अधिकतर इस दुष्परिणाम का शिकार अपनें अबलेपन के कारण होती हैं उनकी ना-समझी उनको यौन-शिक्षा के ना मिलनें से होती हैं। अगर जब कहीं उजाला नहीं हैं तब कहीं अंधेरें की अस्तित्व हैं, यदि कहीं ज़िन्दगी नहीं हैं तो मौत का अस्तित्व हैं, वैसे ही अगर आप चाहतें हैं बलात्कार का अस्तित्व ना हो तो आपको जागरूक बनना होगा और यदि आप जागरूक होतें हैं तो हज़ार हल आपकें सामनें नज़रें झुकाएं शर्मिन्दगीं से खडें मिलेंगे। बस इतना ही कुछ कहना चाहता था, यदि कोई लेखक एक स्त्री के दर्द को नहीं समझ सकता तो वह कभी एक अच्छा लेखक नहीं हो सकता।
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..हर फूल हर चमन की मुस्कान मेरी बिटियां..
..मेरी ज़िन्दगी की शान-ए-बयान मेरी बिटियां..
..बकवासी बातों से कितनी आगें हैं मेरी बिटियां..
..अखबारों की जगह अब चाँद पे हैं मेरी बिटियां..
..सजता अब जो कोई शाम-ए-शमां मेरी बिटियां..
..पीछें तेरा ही नाम लगा दिखता हैं मेरी बिटियां..
..अब तू मुस्कुराती हैं जो पहचान हैं मेरी बिटियां..
..आज़ तेरे ही नाम से नाम हूँ ये जान मेरी बिटियां..
..नितेश वर्मा..
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