काफी शर्मसार हूँ। मेरे ही देश के एक राज्य में एक महिला के साथ इतना अन्याय। प्रसाशन,समाज,कानून यहां तक के अपनें भी हाथ पे हाथ धरें बैठें रहें।उन्हें उनकी अवाज तक कानों में नहीं लगी।क्या दिमाग का बंधन बैठ गया था।उफ्फ! क्या जमाना आ गया हैं।
मुझे पता नहीं मुझे इस बात पे क्या लिखना चाहिएं। अपनी नाकामीं,शर्मिंदगी, समाजी वर्चस्व या फिर बहकी बकवासें।बलात्कार, जुर्म हैं ना? फिर भी आएं दिन हो रहा हैं.. कौन हैं इसका जिम्मेदार.. क्या यें हमारें अपनों के भी साथ हो सकता हैं? ना ना.. सोच के ही रूह काँप जाती हैं तो फिर उनका क्या हाल होता होगा जिनपें ये गुजरती हैं? उस लडकी/स्त्री/औरत का क्या होता होगा।स्थिति सोचनीय और गंभीर हैं।
जिनके हाथों में कमान हैं वो तीर की प्रतीक्षा कर रहें हैं.. तीर मिलनें के बाद गुरू-आशीर्वाद की फिर उसके बाद तक स्थिति काबूं में ना हुई हो तो करीब जा के आहिस्तें से तीर-कमान फेंक कर दोषी को ऐसे पकडते हैं जैसे कोई बच्चा अपनी माँ से 6 महीनों बाद मिला हो।
क्या होगा इस देश का?
मेरा?
मेरे समाज का?
आखिर शुरूआत तो किसी को कहीं से ना कहीं से तो करनी ही होगी.. क्या सब अपनें में इतनें व्यस्त हैं की उन्हें अपना कल नहीं दिख रहा। उस कमाई का फायदा ही क्या जो एक वक्त आ के निलाम हो जाएं। यहां यह जरूरी हैं सबको कानून,समाज,सरकार को अपनी-अपनी जिम्मेदारियों को अच्छें ढंग से निभानें का। ज्यादा कुछ कहना-लिखना अखबारी हो जाऐगा और आपके पास उतना वक्त भी नहीं होगा सब पढने और समझनें का। देश के भविष्य में जागरूक बनें, धन्यवाद।
..अक्सर दिन लग जाते हैं सब समझ आनें में..
..चौराहें पे लुटती हैं इज्जत शर्मं आती हैं कहके सुनानें में..
..वो दरिंदा क्या समझेगा इक अबला की हरकतें..
..बेचारी सहमीं रहती हैं घर से निकल के आनें में..
..धुंधला सा पडा हैं ये समाजी ढाँचा..
..कोई क्या मानेगा मेरी कहानी में..
..मैं खामोश रहता हूँ तो चींखें गुँजती हैं कानों में..
..लिखता हूँ गर तो साँसें चलती हैं मगर रूह रहती हैं जमींदारी में..!
..नितेश वर्मा..
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