Wednesday, 9 July 2014

..पहलें प्यार की उल्झनें..

कल हमनें देखा था पहलें प्यार की उल्झनें में पहले पक्ष यानी की लडकों की परेशानियों को आज़ हम उससे आगे बढेंगे और दूसरें पक्ष यानी लडकियों की परेशानी पे गौर करेंगे।

उफ़्फ़ कैसे करूँगीं मैं अपनी मुहब्बत का इज़हार, वो तो मेरी हर-बात का मज़ाक बना देता हैं। कितना बेवकूफ़ हैं इतना भी नहीं समझता मैं उसे कितना प्यार करती हूँ सब मैं ही बताऊँगी उसे भी तो कुछ पढ लेना चाहिए तिरछी नज़रों से देखती रहती हूँ कोई इशारा नहीं होता क्या? पता ना बेवकूफ़ कब समझेगा? चलो नहीं भी समझता हैं तो क्या मैं ही जा के बता देती हूँ की मैं उसके बगैर जी नहीं सकती उसके बाहों में बाहें डाल में भी दो कदम चलना चाहती हूँ जैसे हर प्रेमी-जुगल करतें हैं। और उसके इंकार का तो सवाल ही पैदा नहीं होता मैं हूँ भी कितनी सुन्दर आईनें के पास जाती हूँ तो आईना शर्मा जाता हैं थोडा फ़िल्मी सा लगता हैं इतनें से कम अपनी खूबसूरती बयां करूं तो वो उस खूबसूरती की अपमान हैं। ये मैं नही कहती काँलेज़ की सारी लडकियाँ भी यहीं कहती रहती हैं और मुझे जितने लव-लेटर मिले हैं ना उनमें सब में मेरी खूबसूरती के खूब खिस्सें हैं कैसे वो मेरी खूबसूरती के कायल हूएं, कैसे वो मेरे दीवानें हुएं और बहोत कुछ लेकिन मैनें उनपें कभी ध्यान नहीं दिया क्यूंकि प्यार तो मैं सिर्फ़ उसी से करती हूँ ना किसी और के बारें में सवाल भी पैदा नहीं होता चाहें और सब कैसे भी हो कितने भी सुन्दर कितने भी शरीफ़ क्यूं ना।

पर मैं उससे बताऊँगी कैसे और कहूँगी क्या कोई खत लिख लूं क्या मगर क्या लिखूं ऐसे ही सामनें से जा के कह दूँ क्या? नहीं-नहीं सामनें तो बहोत सारें लडके-लडकियाँ भी होंगे अच्छा नहीं होगा और मैं भी कोई ऐसी वैसी लडकी थोडे ही ना हूँ पता ना कोई देखेगा तो क्या सोचेगा कितनी बदतमीज़ लडकी हैं। और कही उसनें सब के सामनें मना कर दिया तो क्या? हाँ ऐसा भी तो वो कर सकता हैं और मैं कोई नूर की परी थोडे ही ना हूँ और आज़कल वो सुरभि की बच्ची कुछ ज़्यादा ही उससे चिपक रहीं हैं बात-बात पे हाथें मार देती हैं कोई ना कोई बहाना बस ढूंढतें रहती हैं उसे छूनें का ऐसे लडकियों का करना अच्छा थोडें ही ना लगता हैं माना उसे मेरे मन के बारें में कुछ पता नहीं पर समझना तो चाहिएं ना और वो तो बस अपने-आप को टाँम-क्रूज़ ही समझता रहता हैं जैसे वो इतना स्मार्ट हैं की लडकियाँ तो बस उसके पीछें लगी रहती हैं। लेकिन वो सोचता भी तो सहीं हैं मैं ना जानें कबसे उसके पीछें लगी हूँ।

लेकिन क्या करूँ कभी वो बात बढाना चाहें तो ना बढाऊँ कैसे कहूँ फोन करके कह दूँ क्या? नहीं-नहीं ये ठीक नहीं होगा मिल के कहती हूँ पर घर्वालों से क्या कहके जाऊँगी? हाँ ट्यूशन का बहाना कर दूँगी और वैसे भी नखडें करनें में बहोत आगें हूँ और माँ को बेवकूफ़ बनाना तो बस मेरे बायें हाथ का काम हैं। यकीन मानिएं जब बच्चें बडे हो जातें तो सबसे बेवकूफ़ अपनी माँ को समझतें हैं तो मैंनें भी उनकों बेवकूफ़ समझ के बेवकूफ़ बनाना शुरू कर दिया हैं और वो भी 7 साल पहलें से। लेकिन बडी बात ये नहीं बडी बात ये हैं की अब उसे कैसे समझाऊँ?

काफ़ी असमंजस और काफ़ी नाजुक स्थिति होती हैं ये खुद को समझाना दिल को समझाना काफ़ी मुश्किल होता हैं। लेकिन परेशां-हैरान दिल काफ़ी खुश होता हैं इस वक्त। एक अज़ीब एहसास होता हैं। पहले प्यार का पहला इज़हार, जहां दिल सिर्फ़ और सिर्फ़ हाँ सुनना चाहता हैं। ऐसी ही होती हैं पहलें प्यार की उल्झनें।

..नितेश वर्मा..

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