Wednesday, 30 July 2014

..कमी दौलत की, आज़-तक रही इन आँखों में..

..कसक बचपन से जो थीं, इन काली आँखों में..
..कमी दौलत की, आज़-तक रही इन आँखों में..

..कभी भूलाया नहीं था जो पता तेरा, घर के दिल की यादों में..
..हसरत टूटती हैं लोग पूछतें हैं, लाचारी कैसी हैं इन आँखों में..

..कौन कहता हैं था मैं मुकरा, कभी मैं मेरे वादों से..
..मैं सोया रहा ख्वाबें जलती रही, बेबस इन आँखों में..

..बातें ही सिर्फ बातें थीं उसकी, जिकर मेरा ज़िल्द भर था कहाँ..
..कहता मैं कैसे उससे कुछ, गीला था ही कहा कभी इन आँखों में..

..तू जो करता हैं सियासत, सब हैं बदनाम पडे ना-जानें कैसे..
..अब कैसे कहूँ, बसे पडे हैं कैसे हिन्दु-मुस्लमां इन आँखों में..

..घर उजाडे जाऐंगे, ऐसे और भी ना-जानें कितनें वर्मा..
..बेबाक कहा था जो उसनें, दर्द आज़-तक रहीं इन आँखों में..

..नितेश वर्मा..


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