Sunday, 13 July 2014

..दहेज-प्रथा.. [Dowry-System]

दहेज-प्रथा.. कहा जाता हैं जो की एक सामाजिक बुराई हैं, अक्सर लडकों वालों की तरफ़ से इसकी माँग की जाती हैं।
लेकिन तब क्या होता हैं जब एक लडका एक अच्छी शिक्षा प्राप्त कर एक अच्छें जगह कार्यरत होकर अपनें गाँव या शहर अपनें, अपनों से मिलनें जाता हैं; तो लोग कैसे-कैसे प्रस्ताव लेके उस लडके या उसके परिवार वालों के पास जातें हैं। जिनसे लोगों को लगता हैं वो यहां अपनी यहां बेटी को ब्याह देंगे तो उनके ज़िन्दगी भर के छोटें सोच को एक जमीं मिल जाऐगी, कहनें को हो तो जाऐगा कि पढाया-लिखाया नहीं तो क्या शादी-ब्याह अच्छें घर में कर दी अब आगे की ज़िन्दगी खुशी से तो रहेगी। इसका क्या मतलब हुआ जब-तक वो आपकी बेटी आपके पास हैं आप उसे खुश नहीं रख सकते, उसके खुशी के लिए आप एक ऐसे अंजान लडके की तालाश कर रहें हैं जो बाहर कहीं कार्यरत हैं।

कैसा जमाना हैं आज भी ऐसे बहोत अभिभावक हैं जो अपनें बेटियों को एक अच्छी शिक्षा के लिए उतनें पैसे खर्च नहीं करतें जिनसे की उनका भविष्य संवर सके और आगे की  खुशियों की बात करतें हैं।
यह अनुभव जरा तीखा होगा मगर क्या करूं एक लडकी के दर्द की जुबां ऐसी ही होती हैं जो ज़िन्दगी भर अपनी खुशियों को मारतें आई हैं क्या संभावना हैं के वो लडका उसके लिएं सही ही होगा या फिर सही ही आगे का निर्णय लेगा। जबकि यहां तक उस लडकी की शादी उससे बिना कुछ कहे-सुनें तय कर दी गई हो या यों कहिएं थोंप दी गई हैं।
बात वहीं हैं.. मुश्किलात बहोत हैं.. विषय बहोत सोचनीय हैं.. कभी-कभी इनका स्वरूप बदल जाता हैं लेकिन जो मुद्दा हैं वो यहीं  आके ठहर जाता हैं।

..आज़ मुश्किलों से जो मैं निकल आया हूँ..
..लोग कहतें हैं के..
..मैं अच्छें दाम का हो आया हूँ..

..खरीदनें को मुझे अब यहां..
..इक अच्छा मेला-सा लग जाता हैं..
..परेशां हूँ अब जीनें से भी घबरा जाता हूँ..

..कैसे बताऊँ उन्हें..
..लडकियाँ अब कोई बोझ नहीं..
..शहर का आँखों देखा हाल..
..उन्हें समझाता हूँ..

..मुझे खरीद के..
..कौन अपनी बेटी की खुशी खरीद लेगा..
..ज़िन्दगी के सारें दर्द..
..आज़ ही मरहम कर देगा..

..मैं कैसे बताऊँ..
..वो जो गुजरें हालात-ए-बंजर..
..किस मुश्किल से निकल..
..किस मुश्किल को पहोंच आया हूँ..

..आज़ मुश्किलों से जो मैं निकल आया हूँ..
..लोग कहतें हैं के..
..मैं अच्छें दाम का हो आया हूँ..!

 ..नितेश वर्मा..

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