Monday, 19 October 2015

कभी-कभी

बस कलम मेरी खामोश हो जाती हैं
कभी-कभी
मैं मूक हो जाता हूँ कुछ अहम से मुद्दों पे
कभी-कभी
मेरी आवाज़ उठती नहीं खिलाफ तेरे
नजाने क्यूं मैं कुछ बोलता नहीं
तेरी गलतियाँ हर रोज़ बढ़ती है
करवटें लेती हैं और मैं
मैं खुद में सिमटता रहता हूँ
थोड़ा-थोड़ा सा ही मगर टूटता रहता हूँ
कभी-कभी होता हैं ऐसा क्यूं
मैं देखता रहता हूँ समझता रहता हूँ
फिर सब नज़र-अंदाज करकें
खामोश हो जाता हूँ
इक प्रतिउत्तर में मुन्तजिर लोग भी हैं
मैं यूं ही तेरे कारण सुनता जाता हूँ
बोलू भी तो क्या बोलू
ये बिकी-बंधी जुबान अब कहाँ तक खोलू
इसलिए होता हैं ऐसा
बस कलम मेरी खामोश हो जाती हैं
कभी-कभी
मैं मूक हो जाता हूँ कुछ अहम से मुद्दों पे
कभी-कभी

नितेश वर्मा और कभी-कभी।

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