Monday, 12 October 2015

चाय

तुम चली गई मगर याद आज-तक हो
जैसे बचपन की कोई गीत
कभी एकाएक जुबां पे रम जाती हैं
तो
लाख कोशिशों के बावजूद भी
ना वो यूं भूलाये बैठती है
ना तुम भगायें भाग जाती हो
ना आँखें खामोश होती हैं
ना ये मतलबी वक्त गुजरता है
ना ही
तुम कभी चलकर करीब आती हो
सब अधूरा-अधूरा सा रहता हैं
फिर मैं
जब चाय चूल्हे पे चढाता हूँ
अदरख की वो सौंध सी खुशबू में
ऊपर उठते उस हल्के धुएँ में
एक मौन धुँधली सी तस्वीर
जिसमें सिर्फ तुम नज़र आती हो
सिर्फ तुम.. और बस.. सिर्फ तुम
फिर जाकर ये थकान उतरतीं हैं।

नितेश वर्मा और चाय 🍵।

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