Saturday, 17 October 2015

यूं ही एक ख्याल सा..

तेरे ईश्क़ की चादर ओढे हुए मैं चल देता हूँ किसी भी एकांत मौसम और विरह की परिस्थितियों में। मैं इसकी कोई वजह नहीं ढूंढता.. कि.. किसी शाम तुम मेरे चाय के प्याले में गिरती सिगरेट की राख को बस एक फिक्र से जुदा करने के लिये आ जाया करोगी.. और घंटों उस फिक्र में मुझको बाँधें रखोगी। मैं नहीं चाहता कि तुम मेरी गर्म चाय को मेरे लिये फूँके मार-मार कर उसे अपनी तरह शांत और कोमल कर दो.. मैं हर दर्द को सहना चाहता हूँ.. हर कड़वी सच्चाइयों को झेलना चाहता हूँ। मैं अपनी किसी भी वेदना को तुम्हारी किसी भी सहानुभूति को लेकर भूलना नहीं चाहता.. और ना ही उस अंतर्मन की कसक को कहीं खोल के रखना चाहता हूँ। मैं ना ही ख्यालों में उलझना चाहता हूँ.. और ना ही मैं किसी स्वांग को परिभाषित करने की कोई कोशिश कर रहा हूँ। मैं बस एक उम्मीद में जी रहा हूँ कि काश जैसे सब कुछ बदला है वैसे ये बेरहम वक्त भी गुजर जाये। मैंने अरसों पहले कहीं ये सुना था जब माँ कहती थी कि - बेटा! अल्लाह बहोत मेहरबान होता हैं, वो सबके लिए फिक्रमंद होता हैं.. तू फिक्र ना कर।

नितेश वर्मा

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