रावण को शहर में जलाने की भीड़
लोकगीतों पे लोगों का झूमना
मेरा उस भीड़ में गुमसुम रह जाना
एक कसक सदियों से सीने में दफ़न
तुम्हें तलाशती मेरी आँखें
विरह की एक अद्भुत अद्वितीय कहानी
फिसल रहे है यूंही जाने तीर कितने
कमान जिन्दगी की हर पल बदल रही
फिर तुम मुझमें हवा सी गुजर जाती
और मैं रावण की तरह जलता रहता
एक विशाल और भयंकर वेदना लिये
जाने क्यूं अब राम बदल गये हैं
और रावण मैं एक ही शक्ल में खड़ा हूँ।
नितेश वर्मा
No comments:
Post a Comment