Sunday, 11 October 2015

यूं ही एक ख्याल सा

यूं ही एक ख्याल सा..

उसे कंघन पसंद थें और मुझे खनकती चूडिया। उसे हर लोग से मुहब्बत हो जाती और मुझे सबसे चिढन। उसे रात की खामोशी सताती तो मुझे रातें एक सुकून दे जाती। उसे ये चुप्पी पसंद नहीं आती लेकिन मुझे चुपचाप घंटों बैठकर देखा करती। उसे जुल्फों का बिखरना पंसद नहीं पर मेरे साथ वो उन्हें उलझनें देती। वो बेबाक थीं तो मुझे हर वक्त एक डर सताया करता।
उसे तीखें गोल-गप्पें अच्छें लगते तो मुझे आलू की टिक्की। उसे शहर की भीड और वहाँ की बारिश अच्छी लगती तो मुझे उसमें अपनी गाँव नजर आती।
उसने ना कभी मुझे बदलनें की कोशिश की और ना मैनें कभी उसे।
उसे लिखना बोरिंग लगता था लेकिन मुझे पढकर वो खुश हो जाती। उसे शामों में काफी के साथ चिप्स पसंद आती तो मुझे चाय के साथ एक सिगरेट।
मग़र अब एक अरसा हो गया हैं, वो ना अब मुझे मिलती हैं और ना मैं उसे। बस खबरें कही से चली आती हैं
कि
अब वो शांत रहनें लगी हैं, रातों में बैठकर लिखनें लगी हैं, अपने गाँव भी घूम आयी हैं, आलू की टिक्की भी ट्राई कर चुकी हैं मग़र अब भी चाय के चुस्कियों के साथ जब सिगरेट की एक कश लेती हैं चाय सर पे चली जाती हैं और आँखों से बेसबर पानी मिनटों तक छ्लकते रहते हैं बरसते रहते हैं।
और मैं..
मैं भी उसे अब घंटों इस शहर की शोर में बैठ कर पढा करता हूँ तीखें गोल-गप्पें खाते हुएं।

नितेश वर्मा

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