Thursday, 29 October 2015

यूं ही एक ख्याल सा

मैं याद हूँ तुम्हें, याद करो.. हम दोनों साथ ही रहा करते थे और.. और वो..
फिर वो बोलते-बोलते.. परेशान सी होकर, कुछ कहते-कहते खुद में उलझ गयीं..
और मैं बस उसे देखता रहा.. जाने क्यूं इस बार उसे मेरे कांधे की जरूरत क्यूं महसूस नहीं हुई और ना ही मेरी आँखें इस बार नम ही हुई।
ऐसा क्यूं एक-बार फिर से दुहराया जा रहा है, सवाल यही है जिन्दगी की जो हल होती नहीं हैं, फिर वहीं जाने क्यूं की कसक के साथ.. जाने क्यूं।

नितेश वर्मा

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