कोई पढ ना ले मंसूब उनके हिमाकत के।
मैं लिखने लगा खुलकर विचारों को अपने
फिर हुये मेरे घर कई दस्तकें हिदायत के।
इस शहर में बारिशों का मौसम हैं ही नहीं
फिर क्यूं बंधे है लोग बंधुआ ज़िराअत के। [ ज़िराअत = खेती ]
वो जब चाहे लौटा देता हैं खिलौना मानके
शर्तें अब वो भी मनवाता हैं निज़ामत के।
इंसा अब वजह ढूंढते हैं हिंदू-मुसलमा के
वर्मा बेवजह हैं खून बरसते यूं विरासत के।
नितेश वर्मा
No comments:
Post a Comment