Monday, 19 October 2015

यूं ही एक ख्याल सा

जब कभी मैं खामोश हो जाता हूँ तुम मुझमें धड़कती हो.. तुम्हारी जिक्र भर बस मुझे नजाने कैसे घंटों तक एक ख्याल में बाँधें रखती हैं। तुम बिलकुल आजकल की शामों की तरह लगती हो.. न कोई शिकवा न कोई शिकायत। मग़र जब भी मैं तुम्हें इस कदर उदास देखता हूँ.. मैं नहीं बयां कर सकता किस कदर मैं परेशां हो जाता हूँ। ये उबाऊ सी ज़िन्दगी और भी बोझिल लगने लगती हैं.. शाम की बहती पुरवईया भी साँसों में अवरोध पैदा करती हैं, मुझे नहीं पता ये सब मेरे साथ ही क्यूं होता हैं.. जब भी कभी तुम्हारा जिक्र होता हैं.. सारे गमों की बारिश मेरी तरफ हो जाती हैं.. मैं तन्हा हो जाता हूँ.. टूट जाता हूँ.. बिखर जाता हूँ.. एक पल में तमाम उल्फतें झेलता हूँ.. होता हैं जब भी ऐसा.. मेरी चाय उबलने लगती हैं। फिर सब कुछ छुपा लेने के चक्कर में.. एक कप चाय बचा लेने के मशक्कत में कुछ पल मैं खुद को मुस्कुराता हुआ पाता हूँ.. ये याद करते हुए ऐसे कभी मुझे देखकर तुम कितनी देर तक खिलखिलाकर हँसा करती थीं।

नितेश वर्मा और चाय ।

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