यूं ही एक ख्याल सा..
जब भी भूख उस गरीब के बच्चें को उकता देती हैं.. वो खामोश सडक किनारें अपनी आँखें मूंद लेता हैं.. और उसकी बेबस आँखों से छलकती पानी धीरें-धीरें उसके आँखों से रिंसने लगती हैं। यही दस्तूर हैं, कमजोर ही सताये जातें हैं.. चाहें महफिल कोई भी हो.. खुदा कोई भी.. या इंसान और हालात कोई भी। तकलीफ और मातम का सबसे पहलें भुगतान इन्ही को करना पडता हैं। मगर कभी-कभी मैं सोचता हूँ, ऐसे दस्तूर किस काम जो एक-तरफा बरसे और एक तरफा काम करें। परेशानी नाउम्मीदी के करीब ले आयी हैं, कहानी आज वज़ह ढूँढ रही है और पात्र खुद में उल्झें हुये हैं।
नितेश वर्मा
जब भी भूख उस गरीब के बच्चें को उकता देती हैं.. वो खामोश सडक किनारें अपनी आँखें मूंद लेता हैं.. और उसकी बेबस आँखों से छलकती पानी धीरें-धीरें उसके आँखों से रिंसने लगती हैं। यही दस्तूर हैं, कमजोर ही सताये जातें हैं.. चाहें महफिल कोई भी हो.. खुदा कोई भी.. या इंसान और हालात कोई भी। तकलीफ और मातम का सबसे पहलें भुगतान इन्ही को करना पडता हैं। मगर कभी-कभी मैं सोचता हूँ, ऐसे दस्तूर किस काम जो एक-तरफा बरसे और एक तरफा काम करें। परेशानी नाउम्मीदी के करीब ले आयी हैं, कहानी आज वज़ह ढूँढ रही है और पात्र खुद में उल्झें हुये हैं।
नितेश वर्मा
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