Saturday, 3 October 2015

चलो दूर की भटकती आवाज़ें कानों में आने दें

चलो दूर की भटकती आवाज़ें कानों में आने दें
बेखौफ हो.. साजिशों को भी एक वजह दे
भूल जायें.. और लबों को दो पल मुस्कुराने दें
यादों को एक सहर दे.. आसमां को छाने दें
जो कहानियाँ लिखते हैं उनको भी तानें दें
बेपरवाह.. बेबाकी.. बेफिक्री से
आँसूओं को भी आँखों से बह के दूर जाने दें
चलो दूर की भटकती आवाज़ें कानों में आने दें

हैं समय का चक्र निरंतर निर्धारित निबंधित
कुछ अपने हिसाब से भी जिन्दगी को गाने दें
यूं हाथ से हाथ मिलाकर.. बेजुबाँ को जुबां देकर
मस्तिष्क को प्रलोभन से बचाकर कोई तरानें दें
हैं सीने में जो गम पीड़ा बन चुका उसे गलाने दें
क्रांति फैली हैं और इंकलाब भी आया हैं
फतवे जो जारी किये हैं.. हवाओं में लहराने दें
चलो दूर की भटकती आवाज़ें कानों में आने दें

खून हो जाता हैं हर रोज़ उस घर के मकानों में
दाग़ यूं बरसों ही रह जाती हैं उसके दामन पे
साँसों को भी धड़कनों के संग साज सजाने दें
कुंठित अफवाहों को किसी आग में जलाने दें
हो रहा है अन्याय सदियों से जो साथ जताने दें
बेतुका सा हैं एहसास मगर इस दफा सुनाने दें
हिंदू-मुस्लमां आज के दौर बने हैं.. ये बताने दें
चलो दूर की भटकती आवाज़ें कानों में आने दें

नितेश वर्मा

No comments:

Post a Comment