Friday, 30 October 2015

शायद वक्त अब बुरे घिरने लगे हैं

शायद वक्त अब बुरे घिरने लगे हैं
ये खौफ आँखों से झलकती हैं
जब भी
कोई बूंद निगाहों की छलकती हैं
मैं उस शांत से मौसम के शाम में
बस
चाँद को घूरते तुम्हें सोचा करता हूँ
फिर
एक ठंडी सी बयार चल जाती हैं
उस शीत के धुंध में
फिर से एक वजह मिल जाती हैं
तुम कहीं गायब हो जाती हो
और
आँसू ये मेरे कोहरे से जाके मिल जाते हैं।

नितेश वर्मा

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