Monday, 12 October 2015

जबरदस्ती बकवासपरस्ती

जबरदस्ती बकवासपरस्ती करते हैं
खुद को खुद में उलझाते हैं
चल सूरज से आँख लड़ाते हैं
चल पैरों से धूल उड़ाते हैं
बारिश की बूंदें मुँह में भरते हैं
फिर हाथों को पंख बनाते हैं
चल चिड़ियों के संग जंगल घूमते हैं
चल फूलों सा खिल जाते हैं
चल दूर फलक पे आशिया बनाते हैं
चल बात बेतुकी करते हैं
चल फिर शमाँ नया जलाते हैं
चल रात सड़को पे निकल जाते हैं
चल आरज़ू को और ऊँचा उड़ाते हैं
लबों पे बेसुरें सुर सजाते हैं
आँखों में सतरंगी रंगोली बनाते हैं
चल आ
जबरदस्ती बकवासपरस्ती करते हैं।
जबरदस्ती बकवासपरस्ती करते हैं।

नितेश वर्मा

No comments:

Post a Comment