Saturday, 31 October 2015

सर्दियों की रात

सर्दियों की रात मुझमें खामोशिया बसर करती हैं
बैठ जाती हैं अक्सर लेके सीनें के अंदर कसक
जैसे गुजरता हुआ वक्त ठहर जाता हैं
मेरे उबरतें घाव थम जाते हैं
अक्सर लिखते-लिखते तुम्हें सोचा करता हूँ मैं
वरक बोझिल से हो जाते हैं, स्याह शांत रहती हैं
उस कमरें की छोटी मग़र उफनती लौ
जिसमें मैं दिव्यमान सा रहता हूँ घुटती रहती हैं
मग़र जब भी ऐसा होता हैं
माँ मेरा सर सहला देती हैं और
और
चाय की कप मेरे हाथों में पकडा जाती हैं
मेरा सिर खुद से बोझिल होकर
मेज़ पर बेसबब चला जाता हैं
फिर माँ जब सिर सहलातें-सहलातें कहती हैं
बेटा अब सो जाना तो ऐसा लगता हैं जैसे
सर्दियों की रात में एक गर्म एहसास भी होती हैं
फिर सोचता हैं दिल कभी-कभी क्या
तुम्हारें पहलें भी माँ
और तुम्हारें बाद भी मुझमें माँ ही होती हैं
वर्ना अक्सर
सर्दियों की रात मुझमें खामोशिया बसर करती हैं।

नितेश वर्मा

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