Saturday, 31 October 2015

सर्दियों की रात

सर्दियों की रात मुझमें खामोशिया बसर करती हैं
बैठ जाती हैं अक्सर लेके सीनें के अंदर कसक
जैसे गुजरता हुआ वक्त ठहर जाता हैं
मेरे उबरतें घाव थम जाते हैं
अक्सर लिखते-लिखते तुम्हें सोचा करता हूँ मैं
वरक बोझिल से हो जाते हैं, स्याह शांत रहती हैं
उस कमरें की छोटी मग़र उफनती लौ
जिसमें मैं दिव्यमान सा रहता हूँ घुटती रहती हैं
मग़र जब भी ऐसा होता हैं
माँ मेरा सर सहला देती हैं और
और
चाय की कप मेरे हाथों में पकडा जाती हैं
मेरा सिर खुद से बोझिल होकर
मेज़ पर बेसबब चला जाता हैं
फिर माँ जब सिर सहलातें-सहलातें कहती हैं
बेटा अब सो जाना तो ऐसा लगता हैं जैसे
सर्दियों की रात में एक गर्म एहसास भी होती हैं
फिर सोचता हैं दिल कभी-कभी क्या
तुम्हारें पहलें भी माँ
और तुम्हारें बाद भी मुझमें माँ ही होती हैं
वर्ना अक्सर
सर्दियों की रात मुझमें खामोशिया बसर करती हैं।

नितेश वर्मा

मेरे ख्यालों में उतरते है लोग बहोत

मेरे ख्यालों में उतरते है लोग बहोत
फिर खुद ही बदलते है लोग बहोत।

गीतों की धुन, वो पाजेब से आती है
वो आयी तो संभलते है लोग बहोत।

मेरी आहों का हिसाब हो एक दिन
यूं देख मुझे मचलते है लोग बहोत।

परिंदे मुझमें बसर करते है रातों में
गुमसुम हो यूं चलते है लोग बहोत।

वो वक्त जो मुझमें गुजर चुका वर्मा
बेवक्त वो याद करते है लोग बहोत।

नितेश वर्मा और लोग बहोत।

यूं ही एक ख्याल सा

उसकी आँखों का कुसूर था.. मेरी आँखों को पढ़ना..
वो बदतमीज था और मैं बेशर्म।

नितेश वर्मा और आँखें।

तुम्हारी आँखें सच बोलती हैं।

तुम्हारी आँखें सच बोलती हैं।
-मैंने कहा
इन्होंने कभी झूठ नहीं बोला।
-उसने कहा
फिर शर्म से निगाहें झुक गयीं..
..हम दोनों की।

नितेश वर्मा

Friday, 30 October 2015

शायद वक्त अब बुरे घिरने लगे हैं

शायद वक्त अब बुरे घिरने लगे हैं
ये खौफ आँखों से झलकती हैं
जब भी
कोई बूंद निगाहों की छलकती हैं
मैं उस शांत से मौसम के शाम में
बस
चाँद को घूरते तुम्हें सोचा करता हूँ
फिर
एक ठंडी सी बयार चल जाती हैं
उस शीत के धुंध में
फिर से एक वजह मिल जाती हैं
तुम कहीं गायब हो जाती हो
और
आँसू ये मेरे कोहरे से जाके मिल जाते हैं।

नितेश वर्मा

Thursday, 29 October 2015

यूं ही एक ख्याल सा

वक्त अब भी गुजर रहा है जब तुम नहीं हो.. आड़ी-तिरछी शक्लों में बीत रही हैं जिन्दगी मगर कोई शिकायत नहीं हैं.. बस एक कसक तुम्हारे जाने को लेकर है। तुम्हारे आने और फिर चले जाने को लेकर मैं परेशान हूँ, मगर फिर भी तुमसे कोई शिकायत नहीं हैं। अब तो यादाश्त और भी बारिक हो गयी हैं.. जब से तुम गयी हो हर बार तुम्हारे स्वादानुसार पाँच चम्मच चीनी को चाय के कप में उड़ेल के पी जाता हूँ, वो भी बिना किसी शिकायत के। अक्सर तुम्हारे जाने के बाद मैं ऐसे ही किया करता हूँ.. मैंने तुम्हारे ख्यालों-जिक्र से सोहबत कर ली है, और अब चाय भी तुम्हारी शर्तों पर पीता हूँ.. इस ख्याल से हर बार उसे फूँक कर.. की इस बार कोई जलन ना हो.. ना इस ओर.. और.. ना ही उस ओर।

नितेश वर्मा और चाय 🍵।

मुझको तो वो बदलनें के लिये

मुझको तो वो बदलनें के लिये
पास आये हैं वो चलनें के लिये।

आहट से ही जो घबरा जाते हैं
शोर करते हैं मचलने के लिये।

मुहब्बत बस आँखों की देखिये
ज़िस्म तो हैं ये ढलने के लिये।

यूं तो गुनाहगार मैं भी हूँ तेरा
शहर से तेरे निकलने के लिये।

शराब के नशे से जब रिहा हुए
फिक्र थीं बस संभलने के लिये।

नितेश वर्मा

बेरहम दर्द मुझमें मुस्कुराते हैं

बेरहम दर्द मुझमें मुस्कुराते हैं
जाने क्यूं मुझको वो यूं सताते हैं
वो मेरा जो हो नहीं पाया है
जाने आँखें प्यार क्यूं जगाते हैं
बेरहम दर्द मुझमें मुस्कुराते हैं

पास जो आ गया है दिल तेरे
साँसों की घुटन जाने क्यूं है बढे
थमी धड़कने हैं सहम के अभी
करीब से जो वो कुछ कह जाते हैं
बेरहम दर्द मुझमें मुस्कुराते हैं

सुन के भी वो मुझे ना आते हैं
लम्हे लम्बे यूं ही गुजर जाते हैं
वो जो छुपकर कहीं रूक जाये
मुझमें समुन्दर कोई जो बताते हैं
बेरहम दर्द मुझमें मुस्कुराते हैं

नितेश वर्मा और बेरहम दर्द।

यूं ही एक ख्याल सा

मैं आज भी वहीं ठहरा हुआ वक्त हूँ जो कि खुद से उदास हैं और थोड़ा तन्हा भी.. पर तुम.. जब भी पीछे मुड़के मुझको देखती हो तुम्हारी शिकायत हर बार यही होती हैं कि - तुम तो अब भी बिलकुल नहीं बदलें।
मगर..
तुम जितना छोड़ गयी थीं मुझे मुझमें मैंने.. बस उसे सँभाले रखा हैं.. पर जाने क्यूं तुम्हारी शिकायतें ये मुझे कभी समझती नहीं।
मैं आज भी वहीं ठहरा हुआ वक्त हूँ.. और तुम हर बार की बदलती हुई कोई शीत, बस मुझमें आकर सिहरन सी छोड़ जाती हो।

नितेश वर्मा और तुम।

पता नहीं क्यूं

शहर में चुनावी चहल-पहल
आक्रोशित माहौल
गलियारों में गूंजती शिव आरती
शाम को मुतमईन करती अज़ान
मेरा संग तुम्हारे नौका विहार
सब कुछ एक साथ ही गुजरता है
पर
मैं आज तक हैरान हूँ..
बस इस बात को लेकर
क्यूं तुम
उस चुनावी माहौल में आकर
ये कौम का बहाना बनाकर
मुझसे अलग हो गयीं
और फिर मुझसे इतनी दूर.. की
मैं फिर तुम्हें
वापस बुला ना सका
जाने क्यूं.. पता नहीं क्यूं.. या यूं ही
पता नहीं क्यूं.. मगर नहीं बुला सका
और ना ही अब तक भूला पाया हूँ
पता नहीं क्यूं।

नितेश वर्मा और पता नहीं क्यूं।

यूं ही एक ख्याल सा

मैं याद हूँ तुम्हें, याद करो.. हम दोनों साथ ही रहा करते थे और.. और वो..
फिर वो बोलते-बोलते.. परेशान सी होकर, कुछ कहते-कहते खुद में उलझ गयीं..
और मैं बस उसे देखता रहा.. जाने क्यूं इस बार उसे मेरे कांधे की जरूरत क्यूं महसूस नहीं हुई और ना ही मेरी आँखें इस बार नम ही हुई।
ऐसा क्यूं एक-बार फिर से दुहराया जा रहा है, सवाल यही है जिन्दगी की जो हल होती नहीं हैं, फिर वहीं जाने क्यूं की कसक के साथ.. जाने क्यूं।

नितेश वर्मा

गुजर जाये कुछ मुझमें यूं तू

गुजर जाये कुछ मुझमें यूं तू
मैं बेचैन रहूँ तो हो मेरा सुकूँ तू
देखें हैं जो ये नम आँखें तुमने
मैं गर वो प्यास तो दरिया हैं तू
हवाओं के सिमटने पर जो
बारिश में भी छुप रहने को जो
ढूंढते हैं जो बेसबब मकाँ तेरा
लापता होके वो मेरा पता है तू
मैं मंजिल हूँ तो बेफिक्र राह तू
कैसा मेरा हाल जो हैं बेहाल तू
गुजर जाये कुछ मुझमें यूं तू
मैं बेचैन रहूँ तो हो मेरा सुकूँ तू

नितेश वर्मा

Saturday, 24 October 2015

यकीनन हर बार की तरह इस बार भी होगा

यकीनन हर बार की तरह इस बार भी होगा
वो जलाया जायेगा तो रंगा अखबार भी होगा

कौन कहता है जमाना मेरा कुछ कहता नहीं
वक्त चुनावी हो तो देखना समाचार भी होगा

तुमको जो यकीन ना हुआ मेरे गुजर जाने पे
मैंने कहाँ ही कब था ये कभी प्रचार भी होगा

अब बातें बदलकर मुद्दा ढूंढते हैं लोग वर्मा
नहीं लगता बाद इसके वो इश्तेहार भी होगा

नितेश वर्मा


यूं ही एक ख्याल सा..

वो चली जाने के लिये उठी थी.. मगर किसे पता था वो दुबारा लौटकर नहीं आयेगी।
अब जो हर जगह खुद को तन्हा महसूस करता हूँ.. टूट जाता हूँ.. खुद में ये सोचकर.. काश!.. काश मैं ही समझ जाता उसे।
शायद वो रूक जाती.. मेरे पास बैठ जाती.. अपनी जुल्फों को सुलझाकर.. मेरे कांधे पर अपना सर रखकर दो पल सुकूँ के दे जाती.. काश! उस वक़्त मेरी हाथों की पकड़ उसकी नाजुक उंगलियों को रिहा ना करती.. काश मैं उसे थाम लेता।
दरअसल, यही तो मुहब्बत होती हैं एक-दूसरे से बिना पूछे उसके दिल की सुन लेना.. उसके लिये बिना शर्त के वो सब कुछ कर जाना जिसे उसकी उम्मीद बंधी हुई होती हैं।
मगर अब सब कुछ धुँधला सा दिखता हैं मेरे आँसू भी मगरमच्छ के लगते हैं, इस बात की अब कोई वजह नहीं और ना ही इस प्राश्चित की जरूरत.. क्यूंकि वो तो चली जाने के लिये उठी थी.. फिर कभी दुबारा न आने के लिये।

नितेश वर्मा और वो।

रावण को शहर में जलाने की भीड़

रावण को शहर में जलाने की भीड़
लोकगीतों पे लोगों का झूमना
मेरा उस भीड़ में गुमसुम रह जाना 
एक कसक सदियों से सीने में दफ़न 
तुम्हें तलाशती मेरी आँखें
विरह की एक अद्भुत अद्वितीय कहानी
फिसल रहे है यूंही जाने तीर कितने
कमान जिन्दगी की हर पल बदल रही
फिर तुम मुझमें हवा सी गुजर जाती
और मैं रावण की तरह जलता रहता
एक विशाल और भयंकर वेदना लिये
जाने क्यूं अब राम बदल गये हैं
और रावण मैं एक ही शक्ल में खड़ा हूँ।

नितेश वर्मा

और उलझती सी एक उदास शाम

और उलझती सी एक उदास शाम
और भी नाराज लगती हैं
जब कभी तुम मिलने नहीं आती
जब कोई वाक्या नहीं होता
हम एक-दूसरे के दरम्यान
साँसें रूक जाती हैं धड़कने पर
हर बार होता हैं ऐसा ही
जब कभी मैं तुम्हें सोचता हूँ
लगती हैं..
जैसे बात ये कल की ही हैं।

नितेश वर्मा

जो दर्द दिखता नहीं वो दर्द क्या चुभता नहीं

जो दर्द दिखता नहीं वो दर्द क्या चुभता नहीं
मुहब्बत के बाद दिल क्या कोई टूटता नहीं।

बात बरसों की बेवजह याद आई इस कदर
शक्ल वो आईने सा मगर अब दिखता नहीं।

फिसल गये रेत सारे हूँ मैं अब खाली-खाली
समुन्दर से अक्सर कोई वजह पूछता नहीं।

ये रिश्ते-नाते सब तोड़कर शहर आ गये हैं
फिर क्यूं कहते हैं लोग अपना छूटता नहीं।

अक्सर होता ही ऐसा है वो मुड़ जाते है वर्मा
क्या ऐसे मोड़ पे आकर अक्ल रूकता नहीं।

नितेश वर्मा


जब कभी सुकून तुममें बढ़ जाने लगे

जब कभी सुकून तुममें बढ़ जाने लगे
पल-दो-पल हँसीं से गुजर जाने लगे
आँखें भी जब बेखौफ मुस्कुराने लगे
बात थमीं हुई फिर से आगे बढ़ जाने लगे
चेहरे भी पर्दों के आगे ग़र आ जाने लगे
कितनी सुंदर हैं बात
ग़र बात कोई दिल को बहलाने लगे
बारिशें भी बेधड़क मुझपे बरस जाने लगे
नैय्या ख्वाबों को पार करकें ले जाने लगे
डूबता सूरज चाँद को कुछ समझाने लगे
पते मंज़िल को जब तुमसे मिलवाने लगे
फिर सोचना तुम.. वक्त बदल रहा है..
लोग बदल रहे हैं.. देश भी ये बदलेगा
आखिर बचा रहेगा क्या मुझमें कुछ
लोग यही बात अब मुझे समझाने लगे
जब कभी सुकून तुममें बढ़ जाने लगे
पल-दो-पल हँसीं से गुजर जाने लगे।

नितेश वर्मा

बेखबर से जाने क्यूं हम

बेखबर से जाने क्यूं हम
कोई खबर ढूंढ लाओ तुम
साँसों से बेअसर क्यूं हम
कोई असर कर जाओ तुम
मुझमें रह लो तुम
मुझे खुद सा कर जाओ तुम
होंठों की नमी को मुझपे रखके
खुदको ही भूल जाओ तुम
बेखबर से जाने क्यूं हम
कोई खबर ढूंढ लाओ तुम

ख्वाब मिलते जिस जगह है
इन आँखों को छोड़ आओ तुम
प्यास हैं इनमें जाने कितनी
समुन्दर खुदको कर जाओ तुम
मुझमें सिमटो तुम कभी
मुझको जिंदा कर जाओ तुम
बरसती हैं हर पल मुझमें छींटें
कभी मुझको भींगा जाओ तुम
बेखबर से जाने क्यूं हम
कोई खबर ढूंढ लाओ तुम

नितेश वर्मा

इस खौफ में जले हैं सारे पत्ते सियासत के

इस खौफ में जले हैं सारे पत्ते सियासत के
कोई पढ ना ले मंसूब उनके हिमाकत के।

मैं लिखने लगा खुलकर विचारों को अपने
फिर हुये मेरे घर कई दस्तकें हिदायत के।

इस शहर में बारिशों का मौसम हैं ही नहीं
फिर क्यूं बंधे है लोग बंधुआ ज़िराअत के। [ ज़िराअत = खेती ]

वो जब चाहे लौटा देता हैं खिलौना मानके
शर्तें अब वो भी मनवाता हैं निज़ामत के।

इंसा अब वजह ढूंढते हैं हिंदू-मुसलमा के
वर्मा बेवजह हैं खून बरसते यूं विरासत के।

नितेश वर्मा


Monday, 19 October 2015

यूं ही एक ख्याल सा

जब कभी मैं खामोश हो जाता हूँ तुम मुझमें धड़कती हो.. तुम्हारी जिक्र भर बस मुझे नजाने कैसे घंटों तक एक ख्याल में बाँधें रखती हैं। तुम बिलकुल आजकल की शामों की तरह लगती हो.. न कोई शिकवा न कोई शिकायत। मग़र जब भी मैं तुम्हें इस कदर उदास देखता हूँ.. मैं नहीं बयां कर सकता किस कदर मैं परेशां हो जाता हूँ। ये उबाऊ सी ज़िन्दगी और भी बोझिल लगने लगती हैं.. शाम की बहती पुरवईया भी साँसों में अवरोध पैदा करती हैं, मुझे नहीं पता ये सब मेरे साथ ही क्यूं होता हैं.. जब भी कभी तुम्हारा जिक्र होता हैं.. सारे गमों की बारिश मेरी तरफ हो जाती हैं.. मैं तन्हा हो जाता हूँ.. टूट जाता हूँ.. बिखर जाता हूँ.. एक पल में तमाम उल्फतें झेलता हूँ.. होता हैं जब भी ऐसा.. मेरी चाय उबलने लगती हैं। फिर सब कुछ छुपा लेने के चक्कर में.. एक कप चाय बचा लेने के मशक्कत में कुछ पल मैं खुद को मुस्कुराता हुआ पाता हूँ.. ये याद करते हुए ऐसे कभी मुझे देखकर तुम कितनी देर तक खिलखिलाकर हँसा करती थीं।

नितेश वर्मा और चाय ।

कभी-कभी

बस कलम मेरी खामोश हो जाती हैं
कभी-कभी
मैं मूक हो जाता हूँ कुछ अहम से मुद्दों पे
कभी-कभी
मेरी आवाज़ उठती नहीं खिलाफ तेरे
नजाने क्यूं मैं कुछ बोलता नहीं
तेरी गलतियाँ हर रोज़ बढ़ती है
करवटें लेती हैं और मैं
मैं खुद में सिमटता रहता हूँ
थोड़ा-थोड़ा सा ही मगर टूटता रहता हूँ
कभी-कभी होता हैं ऐसा क्यूं
मैं देखता रहता हूँ समझता रहता हूँ
फिर सब नज़र-अंदाज करकें
खामोश हो जाता हूँ
इक प्रतिउत्तर में मुन्तजिर लोग भी हैं
मैं यूं ही तेरे कारण सुनता जाता हूँ
बोलू भी तो क्या बोलू
ये बिकी-बंधी जुबान अब कहाँ तक खोलू
इसलिए होता हैं ऐसा
बस कलम मेरी खामोश हो जाती हैं
कभी-कभी
मैं मूक हो जाता हूँ कुछ अहम से मुद्दों पे
कभी-कभी

नितेश वर्मा और कभी-कभी।

Sunday, 18 October 2015

तुम भूल जाती हो अक्सर

तुम भूल जाती हो अक्सर
मुझमें एक क्रांतिकारी भी रहता हैं
अक्सर..
अक्सर तुम डर जाती हो हर खौफ से
तुम्हें नजानें कितनी वजहें
एक साथ डराती हैं
नजानें तुम क्या सोचा करती हो
अक्सर..
अक्सर तुम भूल जाती हो
तुम्हें फिक्र रहती हैं.. मैं बचा रहूँ
हर गलत-ओ-नज़र-अंदाज़ से
तुम नहीं चाहती हो कोई भी वजह यूं बेवजह
तुम नहीं चाहती
उँगलियाँ उठकर कभी आयें मेरी तरफ
तुम नहीं चाहती
कोई भी मौसम आ के भींगाये मुझको
तुम नहीं चाहती
इस मासूम शक्ल पे कोई दाग़ आयें
तुम नहीं चाहती हो कुछ भी ऐसा
मग़र..
तुम भूल जाती हो अक्सर
मुझमें एक क्रांतिकारी भी रहता हैं
तुम भूल जाती हो अक्सर।

नितेश वर्मा और तुम भूल जाती हो अक्सर।

Saturday, 17 October 2015

कोई नई बात

एक लघु कथा

तुम इतना क्यूं सोचते हो, मुझे तुम्हारे लिये कुछ भी कर के एक अजीब खुशी मिलती हैं बिलकुल एक रूहानी सुकून सा लगता हैं.. मैं कुछ भी तुम्हारे लिये कर सकूँ वो मेरी खुशनसीबी हैं।
तुम खामाखाह ये सब सोचते रहते हो, तुम्हें तो बस मेरे बारे में सोचने का हक है और कुछ नहीं, समझे तुम।
तुम कितनी अच्छी हो।
जानती हूँ - कोई नई बात बताओ?
आई लव यू।
आई लव यू टू।
जानता हूँ, कोई नई बात करो।

नितेश वर्मा


यार - 2

यार!
कितना खूबसूरत हैं ना - मैंने कहा
जब अच्छे दोस्त साथ हो ना
तो
फिर सबकुछ अच्छा ही लगता हैं - उसने कहा
हाँ, वो तो मैं हूँ ही - मैंने कहा
तुम्हारी बात कौन कर रहा था ?
मैं तो अपनी बात बता रही थी - उसने कहा
लगता तो नहीं लेकिन हो तुम भी - मैंने कहा
क्या लगा था तुम्हें ?
सिर्फ तुम ही लिख सकते हों - उसने कहा
नहीं, ऐसी बात नहीं है - मैंने कहा
अच्छा! एक बात बताओ
क्यूं उदास सी रहती हो तुम - मैंने पूछा
कहाँ रहती हूँ मैं कभी उदास - उसने कहा
फिर तीन घंटे अपनी कहानी सुनाई
आँखों से आँसू बहा-बहा कर
एक बात बोलूं - मैंने पूछा
हाँ बोलो, ना बोलूंगी तो कौन सा मान जाओगे - उसने कहा
शायद इससे पहले ये किसी ने तुमसे नहीं कहा होगा - मैंने कहा
संजीदगी भरा उसका कहना था बोलो
यार!
तुम रोते हुये बहोत बुरी लगती हो - मैंने कहा।

नितेश वर्मा और यार।

यार - 1

यार!
खुश तो सब रहना चाहते हैं
लेकिन सबकी किस्मत में
ये खुशियाँ कहाँ होती हैं। - वो बोली
तुम किस्मत में यकीन रखती हो? - मैंने पूछा
नहीं, मुझे नहीं पता।
लेकिन कभी-कभी ऐसा क्यूं होता हैं
की
किसी की जिंदगी से मुश्किलात
खत्म होने का नाम ही नहीं लेती हैं - उसने पूछा
तुम्हें ऐसा क्यूं लगता हैं कि
तुम्हारी जिन्दगी भी
एक आजमाइश से होके गुजर रही हैं? - मैंने पूछा
उसने अपनी जुल्फों को सुलझाकर
मेरी ओर देख कर मुस्कुरा दिया
बिन कुछ बोलें.. यूं खामोशी से।
तुम हँसती रहा करो
तुम मुस्कुराती हुये बहोत अच्छी लगती हो - मैंने कहा
कैसे रहा करू खुश.. यूं ही बेजान तन्हा होके - उसने पूछा
मैंने हाथ बढाकर कहा संग चलोगी मेरे
जिन्दगी की दो मोड़ ही सही
मगर मुस्कुराते हुए
क्यूंकि
तुम मुस्कुराती हुये बहोत अच्छी लगती हो - मैंने कहा
इस बार मुस्कुरा कर उसने हाथ मेरी तरफ बढ़ा दिया बिन कुछ बोलें
अपनी आँखों को खुद से ही छिपाकर।

नितेश वर्मा और यार।

यूं ही एक ख्याल सा..

तेरे ईश्क़ की चादर ओढे हुए मैं चल देता हूँ किसी भी एकांत मौसम और विरह की परिस्थितियों में। मैं इसकी कोई वजह नहीं ढूंढता.. कि.. किसी शाम तुम मेरे चाय के प्याले में गिरती सिगरेट की राख को बस एक फिक्र से जुदा करने के लिये आ जाया करोगी.. और घंटों उस फिक्र में मुझको बाँधें रखोगी। मैं नहीं चाहता कि तुम मेरी गर्म चाय को मेरे लिये फूँके मार-मार कर उसे अपनी तरह शांत और कोमल कर दो.. मैं हर दर्द को सहना चाहता हूँ.. हर कड़वी सच्चाइयों को झेलना चाहता हूँ। मैं अपनी किसी भी वेदना को तुम्हारी किसी भी सहानुभूति को लेकर भूलना नहीं चाहता.. और ना ही उस अंतर्मन की कसक को कहीं खोल के रखना चाहता हूँ। मैं ना ही ख्यालों में उलझना चाहता हूँ.. और ना ही मैं किसी स्वांग को परिभाषित करने की कोई कोशिश कर रहा हूँ। मैं बस एक उम्मीद में जी रहा हूँ कि काश जैसे सब कुछ बदला है वैसे ये बेरहम वक्त भी गुजर जाये। मैंने अरसों पहले कहीं ये सुना था जब माँ कहती थी कि - बेटा! अल्लाह बहोत मेहरबान होता हैं, वो सबके लिए फिक्रमंद होता हैं.. तू फिक्र ना कर।

नितेश वर्मा

ये दिन ऐसे ही ढल जायेगा

ये दिन ऐसे ही ढल जायेगा
हँसते ही यूं निकल जायेगा।

प्यास को जो यूं वजह मिले
पत्थर भी वो पिघल जायेगा।

छुयें जो वो मुझको होंठों से
दिल मेरा भी मचल जायेगा।

झूठ चिल्लाकर आग लगाईं
दो घर अब तो जल जायेगा।

परिंदे को फिक्र भूख की थी
क्यूं नभ कुछ निगल जायेगा।

जो मर गयीं वो मेरी थीं वर्मा
बात अब सब बदल जायेगा।

नितेश वर्मा

Friday, 16 October 2015

मैंने आँखें मूँद ली है हर उफनती आवाज़ों पे

मैंने आँखें मूँद ली है हर उफनती आवाज़ों पे
मैंने खुदको छुपा लिया है हर शह के खौफ से
मैंने बदलने की भी कोशिश की है बेदस्तूर
ग़मों से इंसा को रिहा करने की
बारिश से भयंकर तूफाँ को जुदा करने की
मैंने ठानी हैं हर वो शर्त.. मग़र शर्मिंदा हूँ
देखता हूँ जब भी आँखें हल्की सी खोलकर
एक टींस उठती हैं उबलती लावा बनकर
सब कुछ राख के ढेर पर बना मिलता हैं
आँधी जाने क्यूं वो बेखौफ चलके आती नहीं
मैं देखता हूँ.. अब भी कुछ गुमसुम नहीं हैं
एक लूट सी मची हैं.. एक शोर उठता है रोज़
मैंने जिंदगी को एक गिरफ्त में उड़ेल दिया है
अब कुछ नहीं देखा जाता तो मौन हूँ मैं
मैंने आँखें मूँद ली है हर उफनती आवाज़ों पे
मैंने खुदको छुपा लिया है हर शह के खौफ से।

नितेश वर्मा

यूं ही एक ख्याल सा

यूं ही एक ख्याल सा..

ऐसी बारिशें हो जाया करें.. तुम किसी गली के मोड़ पे ठहरी हुई मिल जाओ.. तो बहोत अच्छा लगता हैं.. बिलकुल एक खूबसूरत मकाम सा। 😘
पर..
जब भी ये मौसम मेरा साथ ऐसे देती हैं.. नजानें क्यूं तुम्हें जाने की जल्दी होती हैं।

नितेश वर्मा और बारिश ☔।

जुबां अब गीत के गुनगुनाऐंगे तेरे भी

जुबां अब गीत के गुनगुनाऐंगे तेरे भी
एक रात तारें ख्वाब सजाऐंगे तेरे भी
वो भीनी धूप बारिश के बाद होगी ही
हसीं मौसम कभी ऐसे आऐंगे तेरे भी
टहनियाँ पत्तों से बोझिल होके रहेंगी
बात कुछेक जंगलों में बरसेंगे तेरे भी
लौह से रिहा हो ख्वाब उड़ेंगे तेरे भी
जुबां अब गीत के गुनगुनाऐंगे तेरे भी

मचलती ख्वाहिशें परें तलाशेंगी यूंही
कुछ साज यूंही बेमर्जी बजेंगे तेरे भी
चेहरों के ये उतरते रंग भरेंगे तेरे भी
पुराने वो सलवटें मुस्कुराऐंगे तेरे भी
हुक्म उँगलियाँ यूं फरमाऐंगे तेरे भी
नवाबी सर पे किसीके छाऐंगे तेरे भी
आसमान पे देखना नाम होंगे तेरे भी
जुबां अब गीत के गुनगुनाऐंगे तेरे भी

नितेश वर्मा और तेरे भी।

अगर खाली हुआ आसमान तो क्या हुआ

अगर खाली हुआ आसमान तो क्या हुआ
बिखरा सा ही हुआ इन्सान तो क्या हुआ।

मुर्दाशहर में जिंदा लोग जलायें जा रहे है
शहर का यूंही हुआ वीरान तो क्या हुआ।

बड़े शहादत की उम्मीद लगाके रक्खें थे
नहीं शख्स हुआ मुसलमान तो क्या हुआ।

पैरों पे कंकड़ बाँध के दौड़ती रही साँसें
जन्म प्यासा हुआ अरमान तो क्या हुआ।

बस वो बेवकूफ बचके निकल गये वर्मा
आग लगाकर हुआ महान तो क्या हुआ।

नितेश वर्मा और तो क्या हुआ।

ये तन्हाई सताती है बस मुझको शामों में

ये तन्हाई सताती है बस मुझको शामों में
देखता हूँ जब उसको अपने ही जामों में।

अब तो सही में लगता हैं सब बदल गया
कहाँ कोई चीज़ मिली हैं मेरे ही दामों में।

शक्लें नोंचता हैं वो यूं हर रोज़ खुरचकर
वो नहीं चाहता भरे जख्म यूं गुमनामों में।

मुझको ये उलझनें छोड़तीं ही नहीं वर्मा
वो भी यूं मसरूफ़ हैं अपने ही कामों में।

नितेश वर्मा

Wednesday, 14 October 2015

मेरी जिन्दगी की सबसे तेज़ धूप में

मेरी जिन्दगी की सबसे तेज़ धूप में
तुम्हारा मेरे साथ चलते रहना
बिन कुछ बोलें यूं खामोश होकर
सर पर पड़ती शिकन की बूंदें
जब भी तुम अपने दुपट्टे से पोंछती
मैं एक पल में तुमको जीं भरके देखता
फिर अचानक तुम रूक जाती
मैं भी शर्मां कर नज़रें फेर लेता
तुम्हें प्यास सताती और मैं
एक अलग अंदाज में तुमसे पूछता
क्या हुआ थक गयी हो
और फिर तुम चुपचाप नजरें झुकाकर
मासूमियत से हाँ में सर हिला देती
मैं तुम्हारे और करीब हो जाता
तुम घबरा कर मुझे देखती रहती
मैं तुम्हारी कोमल सी हाथों को
अपनी गिरफ्त में कर लेता
तुम सवालिया होकर मुझसे कहती
क्या कर रहे हो कोई देख लेगा
मेरा कहना होता तुम्हें सँभाल रहा हूँ
और
तुम मेरे सीने पे अपना सर रख देती।

नितेश वर्मा और तुम।

Tuesday, 13 October 2015

Slowly slowly

And the day passes slowly slowly
And the minutes pin of the clock
Gazed me as like as
A condemned saw the judge
And the sudden of your appearance
All these things gonna be a wrong time
At a wrong place
When you came to me
And your lips on my eyes
Tears.. Tears.. And Tears..
Flowing fluently on my cheeks
Why it came into my eyes
And why you came into my life
Life gonna be depressed
Totally depressed
But
I walks.. slowly slowly
as slowly as I can
In dreams of that, I thinks
One day
all these things gonna be happening again
At a right time
And a right place.

Nitesh Verma Poetry


Monday, 12 October 2015

जबरदस्ती बकवासपरस्ती

जबरदस्ती बकवासपरस्ती करते हैं
खुद को खुद में उलझाते हैं
चल सूरज से आँख लड़ाते हैं
चल पैरों से धूल उड़ाते हैं
बारिश की बूंदें मुँह में भरते हैं
फिर हाथों को पंख बनाते हैं
चल चिड़ियों के संग जंगल घूमते हैं
चल फूलों सा खिल जाते हैं
चल दूर फलक पे आशिया बनाते हैं
चल बात बेतुकी करते हैं
चल फिर शमाँ नया जलाते हैं
चल रात सड़को पे निकल जाते हैं
चल आरज़ू को और ऊँचा उड़ाते हैं
लबों पे बेसुरें सुर सजाते हैं
आँखों में सतरंगी रंगोली बनाते हैं
चल आ
जबरदस्ती बकवासपरस्ती करते हैं।
जबरदस्ती बकवासपरस्ती करते हैं।

नितेश वर्मा

मुझको मुहब्बत में फ़ना होना आता नहीं

मुझको मुहब्बत में फ़ना होना आता नहीं
उससे यही बात कहके खोना आता नहीं।

इक धूप सी पीछे लगी रही मुझसे ये मौत
सुकून दे कोई वो नज़र कोना आता नहीं।

बदहाली ओढे शक्ल पर मुन्तजिर हैं तेरे
गुजर जाये ये वक्त रोना-धोना आता नहीं।

हाँ मेरे हाथ मिट्टी से भी सने हैं मगर वर्मा
राजनीति में मुझे फसल बोना आता नहीं।

नितेश वर्मा और आता नहीं।

जान यूंही चली जाती हैं मुठभेड़ों में

जान यूंही चली जाती हैं मुठभेड़ों में
कौन यूंही बोलें औरों के लफेड़ो में।

इतने आसान से शक्लों में ढल गए
जिनको ता-उम्र तराशा तस्वीरों में।

नितेश वर्मा

अब जाने क्यूं मुझको ये गम सताने लगीं हैं

अब जाने क्यूं मुझको ये गम सताने लगीं हैं
तहरीरें भी देखकर मुझे मुस्कुरानें लगीं हैं।

मैं नंगे पाँव पूरे गाँव में दौड़ लगाया करता
अब शहर की तस्वीरें मुझे थकाने लगीं हैं।

क्यूं नासमझी मुझपर ही आकर ठहरती हैं
कोई पगली मुझसे भी दिल लगाने लगीं हैं।

खामोश निगाहों में कितनी बेताबियाँ थीं यूं
जिन्दगी भी अब आकर मुझे पढाने लगीं हैं।

मुझको तो हर शाम तुम याद आ जाती थीं
क्यूं अब रात यूं ही मुझमें ढल जाने लगीं हैं।

नितेश वर्मा और लगीं हैं।

चाय

तुम चली गई मगर याद आज-तक हो
जैसे बचपन की कोई गीत
कभी एकाएक जुबां पे रम जाती हैं
तो
लाख कोशिशों के बावजूद भी
ना वो यूं भूलाये बैठती है
ना तुम भगायें भाग जाती हो
ना आँखें खामोश होती हैं
ना ये मतलबी वक्त गुजरता है
ना ही
तुम कभी चलकर करीब आती हो
सब अधूरा-अधूरा सा रहता हैं
फिर मैं
जब चाय चूल्हे पे चढाता हूँ
अदरख की वो सौंध सी खुशबू में
ऊपर उठते उस हल्के धुएँ में
एक मौन धुँधली सी तस्वीर
जिसमें सिर्फ तुम नज़र आती हो
सिर्फ तुम.. और बस.. सिर्फ तुम
फिर जाकर ये थकान उतरतीं हैं।

नितेश वर्मा और चाय 🍵।

Sunday, 11 October 2015

यूं ही एक ख्याल सा

यूं ही एक ख्याल सा..

उसे कंघन पसंद थें और मुझे खनकती चूडिया। उसे हर लोग से मुहब्बत हो जाती और मुझे सबसे चिढन। उसे रात की खामोशी सताती तो मुझे रातें एक सुकून दे जाती। उसे ये चुप्पी पसंद नहीं आती लेकिन मुझे चुपचाप घंटों बैठकर देखा करती। उसे जुल्फों का बिखरना पंसद नहीं पर मेरे साथ वो उन्हें उलझनें देती। वो बेबाक थीं तो मुझे हर वक्त एक डर सताया करता।
उसे तीखें गोल-गप्पें अच्छें लगते तो मुझे आलू की टिक्की। उसे शहर की भीड और वहाँ की बारिश अच्छी लगती तो मुझे उसमें अपनी गाँव नजर आती।
उसने ना कभी मुझे बदलनें की कोशिश की और ना मैनें कभी उसे।
उसे लिखना बोरिंग लगता था लेकिन मुझे पढकर वो खुश हो जाती। उसे शामों में काफी के साथ चिप्स पसंद आती तो मुझे चाय के साथ एक सिगरेट।
मग़र अब एक अरसा हो गया हैं, वो ना अब मुझे मिलती हैं और ना मैं उसे। बस खबरें कही से चली आती हैं
कि
अब वो शांत रहनें लगी हैं, रातों में बैठकर लिखनें लगी हैं, अपने गाँव भी घूम आयी हैं, आलू की टिक्की भी ट्राई कर चुकी हैं मग़र अब भी चाय के चुस्कियों के साथ जब सिगरेट की एक कश लेती हैं चाय सर पे चली जाती हैं और आँखों से बेसबर पानी मिनटों तक छ्लकते रहते हैं बरसते रहते हैं।
और मैं..
मैं भी उसे अब घंटों इस शहर की शोर में बैठ कर पढा करता हूँ तीखें गोल-गप्पें खाते हुएं।

नितेश वर्मा

समय

समय के बाद अगर आपको कुछ मिलता हैं तो उसका औचित्य ना के बराबर होता हैं.. ठीक उसी प्रकार.. अगर कोई सोच आपकी समझ को समय से पहले प्राप्त हो जाता हैं तो उसका वर्चस्व आपको आगे बढ़ने की अनुमति नहीं देता हैं.. और आदतन आप भाग-दौड़ की जिंदगी में उसे एक वजह का नाम देकर टाल देते हैं। लेकिन नियति.. इंसानी मतभेद या इंसानों के प्रारूप से तय नहीं होता इसलिये.. इंसान को निरंतर प्रयास करते रहना चाहिये। जीत पक्की मिलेगी.. जीत आपकी पक्की होगी.. ये प्रमाणित बात हैं।

नितेश वर्मा और समय।

Saturday, 10 October 2015

तुमको ऐसे क्यूं लगता हैं सब बदल जायेगा

तुमको ऐसे क्यूं लगता हैं सब बदल जायेगा
चराग़ तेरा आँधी में भी आकर जल जायेगा।

होंठों पर भींगी-भींगी सी प्यास ठहरती रही
मौसम जाने होके कौन सा मुकम्मल जायेगा।

इतने इत्मीनान से बैठें हैं जिंदगी की छाँव में
मौत भी आके करीब दो पल सँभल जायेगा।

दबे पाँव घर में घुस बैठें हैं मुसाफिर शहरी
इंकलाब फिर से मुझमें यूंही निकल जायेगा।

वो चलते हैं मसलेहत को खुदमें लेकर वर्मा
मुहब्बत में आकर दिल फिर मचल जायेगा।

नितेश वर्मा और जायेगा।

मुहब्बत सरनवाजी अब करती नहीं

मुहब्बत सरनवाजी अब करती नहीं
बात बेतुकी अब यूं ही बढ़ती नहीं
लोग बेहिस से हैं
मगर.. फिर भी..
इंतजार मायूसी की घटती नहीं
दो लम्हे गुजर जाये बस
यूं ही तुमको तकते-तकते
बेवजह हैं लेकिन फिर भी
क्यूं ये
आरजूएँ जिंदगी की मरती नहीं।

नितेश वर्मा और आरजूएँ।

Thursday, 8 October 2015

पात्र खुद में उल्झें हुये हैं

यूं ही एक ख्याल सा..

जब भी भूख उस गरीब के बच्चें को उकता देती हैं.. वो खामोश सडक किनारें अपनी आँखें मूंद लेता हैं.. और उसकी बेबस आँखों से छलकती पानी धीरें-धीरें उसके आँखों से रिंसने लगती हैं। यही दस्तूर हैं, कमजोर ही सताये जातें हैं.. चाहें महफिल कोई भी हो.. खुदा कोई भी.. या इंसान और हालात कोई भी। तकलीफ और मातम का सबसे पहलें भुगतान इन्ही को करना पडता हैं। मगर कभी-कभी मैं सोचता हूँ, ऐसे दस्तूर किस काम जो एक-तरफा बरसे और एक तरफा काम करें। परेशानी नाउम्मीदी के करीब ले आयी हैं, कहानी आज वज़ह ढूँढ रही है और पात्र खुद में उल्झें हुये हैं।

नितेश वर्मा

होती हैं क्या मुहब्बत मैं नहीं जानता

होती हैं क्या मुहब्बत मैं नहीं जानता
सच है, हूँ मैं सहमत मैं नहीं जानता।

वो आवाज़ मुझे सोने ही नहीं देती हैं
कैसी है तेरी तौहमत मैं नहीं जानता।

तुम प्यास से हारे तो थक के सो गये
कैसे गुजारी वो वक्त मैं नहीं जानता।

सारे शख्स मेरे अपनों की भीड़ में हैं
मुझसा था जो दरख्त मैं नहीं जानता।

फिर से उसी बाज़ार से गुजरें है वर्मा
शक्लें वो मौकापरस्त मैं नहीं जानता।

नितेश वर्मा और मैं नहीं जानता।

कभी कभी मैं चाहता हूँ

कभी कभी मैं चाहता हूँ
सारी परेशानियों से दूर
एक कोई कुटिया बना लू
जहाँ हर रोज़
मैं खुद को समझ पाऊँ
फूँक दूँ अलसायी गर्मी में
सूखें पत्तों के संग
तमाम तकलीफें अपनी
बना लू एक ऐसा जहां
जहाँ
सिर्फ़ मैं रहूँ और मेरी सुकून।

नितेश वर्मा और सुकून।

कोई गम हैं तो आकर बताओ जरा

कोई गम हैं तो आकर बताओ जरा
गमें-हालत मुझको भी सुनाओ जरा।

मैं तो यूं तेरे ही इंतजार में पागल हूँ
कभी नजरें इधर भी फरमाओ जरा।

तुम बेबाक हवा सी मुझमें रहती हो
मैं जुल्फ तेरा मुझे सुलझाओ जरा।

रो रही हैं आँखें शहर की खबरों पे
इल्जाम बेखौफ तुम लहराओ जरा।

इतनी सी ही मौइदत माँगी थी वर्मा
लबों पे इश्क़-ए-हर्फ दुहराओ जरा।

नितेश वर्मा और जरा।

दिल पुकारता रहा एक आवाज़ क्यूं

दिल पुकारता रहा एक आवाज़ क्यूं
शख्स वो नादान परेशां हैं आज क्यूं।

महफ़िल में रूसवाई आकर बैठीं है
सनम फिर दीवार पे गिरीं गाज क्यूं।

जब तक जीने की तमन्ना थी जी मैंने
फिर बेहिस रहे मौत से ये दाज क्यूं।

घुट घुट के जब चेहरा मरने लगा था
कसक उठीं परिंदों की परवाज क्यूं।

मौन रहे दो पल फिर चल दिए वर्मा
या रब ऐसी ही है अपनी समाज क्यूं।

नितेश वर्मा और क्यूं।

Monday, 5 October 2015

तुम बहुत खूबसूरत हो

एक शाम की बेतुकी प्रेम-संवाद हिंदी की कविता में..

तुम बहुत खूबसूरत हो
कितनी खूबसूरत,
चाँद सी क्या ?
हाँ बिलकुल, चाँद की चाँदनी सी
पर मेरा चाँद कौन हैं ?, तुम
नहीं मैं नहीं, पता नहीं
कौन हैं ? तुम जानती हो
नहीं, मैं तो अब तक नहीं मिली
क्यूं ? क्यूं नहीं मिली
क्यूं मिलू भला, तुम बताओ
मिलना तो था ना
वो मिले मुझसे, मैं क्यूं मरूँ
तुम्हें प्यार नहीं हैं क्या उससे
नहीं, नहीं हैं
तुम बताओ तुम्हें मुझसे हैं
क्या ?
प्यार, और क्या ?
क्यूं, पूछ रही हो अब ये ?
बता भी दो, अब ये
हाँ शायद! लेकिन डरता हूँ
किससे ? मुझसे क्या
नहीं, खुद से
क्यूं डरते हो बेवजह
बेवजह नहीं, वजह है ना
क्या है वजह ? बताओगे भी
कैसे बताऊँ ? ड़रता हूँ
हाथ जोड़ूं क्या अब
नहीं इसकी जरूरत नहीं
तो बताओ फिर
हाँ, बताता हूँ
बताओ
तुम बहुत खूबसूरत हो।

नितेश वर्मा और तुम बहुत खूबसूरत हो।

हैं कुछ पूछती मुझसे अभ्भी निगाहें उनकी

हैं कुछ पूछती मुझसे अभ्भी निगाहें उनकी
कहें तो हैं दूर् मुझसे अभ्भी निगाहें उनकी

शिकवों-शिकायतों का जानें क्या सिलसिला
मिलती-झुकती मुझसे अभ्भी निगाहें उनकी

वो तो इक खामोश-सी जुबान लिये बैठी हैं
करती सवालें मुझसे अभ्भी निगाहें उनकी

अब-तक तो मैं हैंरत में जी रहा हूँ अए वर्मा
करती हैं ईश्क मुझसे अभ्भी निगाहें उनकी

नितेश वर्मा

Sunday, 4 October 2015

तुम बदल गये हो बिलकुल उतने

तुम बदल गये हो बिलकुल उतने
जितने की
बेवफाओं के किताबों में
बेवफा का
ज़िक्र हुआ करता हैं
दिल फिर भी हमदर्द रहता है
कड़िया जिन्दगी की मजबूर है
साँसें बुनती रहती हैं
मगर
अब मुझको कोई फिक्र नहीं
तेरे चले जाने के बाद
मुझे भी अपनी परवाह नहीं
मगर जब भी शाम ढलती हैं
मैं शहर के एक तरफ की शोर में
पागल हो जाता हूँ
और जाने तुम खामोश कहाँ रहती हो
तुम कहाँ रहती हो।

नितेश वर्मा और तुम।

Saturday, 3 October 2015

मुसीबत में पत्थर ही परेशान करती रही

मुसीबत में पत्थर ही परेशान करती रही
और दिल ये उसी से पहचान करती रही।

हर बार के मतलबी वक्तों से शर्मिन्दा हैं
मेरे माथें की लकीर एहसान करती रही।

जो टूट जाते हैं रिश्ते यूं ही बेवजह कभी
वजह साफ एक मुझमें शान करती रही।

वो चलते गए जिनको जाने की जल्दी थीं
जो बची है वहीं मुझे कुर्बान करती रही।

किन-किन मुखबिरों से मैंने तलाशा तुझे
जो मिट गयी वो ही दास्तान करती रही।

नितेश वर्मा

बेवजह जब बात उठती हैं

बेवजह जब बात उठती हैं
उसकी हर बात चुभती हैं।

वो शातिर हैं हर मामले में
दिल को ये बात दुखती हैं।

सो जाते हैं उसके सायों में
जीने की ये बात मिलती हैं।

बर्बाद हैं हर शख्स ऐ वर्मा
फिर क्यूं वो बात हँसती हैं।

नितेश वर्मा और बात।

सितंबर का महीना

सितंबर का महीना
जून की गर्मी
बेहाल से लोग
उल्झतें मौसम
आँखों की नमी
बेदस्तूर हैं सब
बेहिस हैं साहब
कुदरत के आगे
इंसानों
की चलती नहीं।

नितेश वर्मा और कुदरत।

क्यूं स्याह से पुती मेरी प्रेम-पत्र हैं

क्यूं स्याह से पुती मेरी प्रेम-पत्र हैं
क्यूं अक्षरें अधमरे से पड़े हैं
काटें हुए हैं, मिटाएँ हुए तो कुछ
जबरदस्ती एक के उपर
एक को चढाये हुए हैं
ढोतें हैं जैसे वो भी रिश्ते मेरी तरह
फिर तन्हा होके हैं रिसते मेरी तरह
बात अब तक बदली नहीं हैं
रंगी हैं.. मटमैली भी थोड़ी हैं
क्यूं स्याह से पुती मेरी प्रेम-पत्र हैं
बिखरीं क्यूं आखिर ये यत्र-तत्र हैं
क्यूं स्याह से पुती मेरी प्रेम-पत्र हैं।

नितेश वर्मा और प्रेम-पत्र।



ये बहोत ही बहानेबाजी वाली बात लगती हैं

ये बहोत ही बहानेबाजी वाली बात लगती हैं
के अब मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ की गूंज
और
तुम बार-बार आकर मुझसे बोलती
मैं हर दफा वहीं जुमले सुना देता
तुम खामोश सुन लेती.. इस उम्मीद में
शायद मैं बदल जाऊँ
लेकिन मैं तो ठहरा वक्त था शायद
और तुम बहती हवा
तुम और हम साथ कभी चल सकते नहीं।

नितेश वर्मा


वो नींद तलाशता हैं शहरों की शोर में

वो नींद तलाशता हैं शहरों की शोर में
भटकता हैं जो हर रोज़ एक विभोर में।

वो उम्मीदों पे खड़ा उतरना चाहता है
जिसकी उम्र ही नहीं हैं उसके जोर में।

वो बस एक ख्वाहिश लिये जी रहा है
ढूंढें हैं जो पता लापता अपनी होड़ में।

वो तो संभल गया है उस चोट के बाद
जिंदगी अभ्भी पीछे पड़ी है यूं चोर में।

नितेश वर्मा


जब भी मैं फुरसत में होता हूँ

जब भी मैं फुरसत में होता हूँ
और
वक्त हमारे आड़े नहीं आती
छत से
चाँदनी और करीब लगती हैं
जब तुम अँधेरे रातों में
अपनी जुल्फों को चाँद की
रोशनी में नहलाती हो
बस मैं तुम्हें घूरता हूँ.. बस तुम्हें।

नितेश वर्मा


कौन ये यादों में आके गुनगुना जाता हैं

कौन ये यादों में आके गुनगुना जाता हैं
लब मुहब्बत के मुझको सुना जाता हैं।

मैं भूल जाता हूँ खुदको याद करने को
कोई बिखरता हैं तो कोई बुना जाता हैं।

मैं तो उसके हिसाब से ही रहने लगा हूँ
कुछ अपनी करूँ तो वो गुर्ना जाता हैं।

दिल मेरा भी अब घायल रहता हैं वर्मा
जैसे बर्षों रक्खा धान भी घूना जाता हैं।

नितेश वर्मा


बेखौफ रास्तों पे चलने का भी एक दौर आयेगा

बेखौफ रास्तों पे चलने का भी एक दौर आयेगा
मगर जब तक आयेगा वक्त कोई और आयेगा।

यूं तो मेरे मत्थे चढे हैं सारे निहत्थों की जिन्दगी
अब शहर में खून करने वो आदमखोर आयेगा।

दुनियादारी के हिस्से में सिर्फ सियासत ही हैं यूं
नाजानें कौन ईश्क में कभी करने गौर आयेगा।

सभी मुद्दे अफवाहों की पनाह में रहते हैं वर्मा
जो झूठ को झूठ बोलें कब उसे वो तौर आयेगा।

नितेश वर्मा


चलो दूर की भटकती आवाज़ें कानों में आने दें

चलो दूर की भटकती आवाज़ें कानों में आने दें
बेखौफ हो.. साजिशों को भी एक वजह दे
भूल जायें.. और लबों को दो पल मुस्कुराने दें
यादों को एक सहर दे.. आसमां को छाने दें
जो कहानियाँ लिखते हैं उनको भी तानें दें
बेपरवाह.. बेबाकी.. बेफिक्री से
आँसूओं को भी आँखों से बह के दूर जाने दें
चलो दूर की भटकती आवाज़ें कानों में आने दें

हैं समय का चक्र निरंतर निर्धारित निबंधित
कुछ अपने हिसाब से भी जिन्दगी को गाने दें
यूं हाथ से हाथ मिलाकर.. बेजुबाँ को जुबां देकर
मस्तिष्क को प्रलोभन से बचाकर कोई तरानें दें
हैं सीने में जो गम पीड़ा बन चुका उसे गलाने दें
क्रांति फैली हैं और इंकलाब भी आया हैं
फतवे जो जारी किये हैं.. हवाओं में लहराने दें
चलो दूर की भटकती आवाज़ें कानों में आने दें

खून हो जाता हैं हर रोज़ उस घर के मकानों में
दाग़ यूं बरसों ही रह जाती हैं उसके दामन पे
साँसों को भी धड़कनों के संग साज सजाने दें
कुंठित अफवाहों को किसी आग में जलाने दें
हो रहा है अन्याय सदियों से जो साथ जताने दें
बेतुका सा हैं एहसास मगर इस दफा सुनाने दें
हिंदू-मुस्लमां आज के दौर बने हैं.. ये बताने दें
चलो दूर की भटकती आवाज़ें कानों में आने दें

नितेश वर्मा

नितेश वर्मा और इंतजार

यूंही एक ख्याल सा..

मैं खामोश बैठीं रही और वो हवा का झोंका बार-बार मुझे परेशान करता रहा। मैं यादों में डूबी बस तुम्हें याद कर रही थीं और नजानें क्यूं हर बार हवाएँ मेरी जुल्फों को परेशान कर रही थीं। वो बेबाकी से मेरी जुल्फों को खुद की रफ्तार में कर लेती और मैं बार बार उन्हें सुलझा कर कानों के पीछे ले जाकर समेट लेती इस ख्याल से की अगर तुम आए और मेरी बेफिक्री से नाराज हो गये तो क्या होगा। मैं हर बात से सहमी तुम्हारा इंतजार आज तलक शामों में करती रहती हूँ कि कभी तो तुम लौट कर आओगे और मेरी इस ठहरी सी जिंदगी को फिर से जीने की एक वजह दे देगो।

नितेश वर्मा और इंतजार।

किसी के चले जाने से

किसी के चले जाने से
ना तो जिन्दगी रूकती हैं
और ना ही साँसें
कमसेकम तुम्हारे चलें जाने से
मेरे साथ तो ये नहीं होता
उत्तरदायी हूँ मैं हर गुनाह का
तुम प्रश्नवादी रहो कोई फिक्र नहीं
मैं बर्बाद हो जाऊँ
किसी वक्त पर आकर बिखर जाऊँ
तुम आबाद रहो
ऐसी दुआ अब मुझसे नहीं होती
जब से तुम गयीं हो सब ठीक है
सब ठीक है.. बस वजह रूठी है
बेवजह.. बेवजह.. बेवजह..

नितेश वर्मा और बेवजह।

बिछड़ कर मुझसे चले जाने के बाद

बिछड़ कर मुझसे चले जाने के बाद
तुम कोई साथी ढूंढ लेना
मुझे पता है तुम्हें हर वक़्त
एक सबल और समर्थ कांधे की
जरूरत महसूस होती हैं
मैं जानता हूँ ये एक विद्रोह होगा
मुझसे और मेरी मुहब्बत से
तुम्हारी प्रचलित अंदाज़ों -बयाँ से
फिर भी
तुम अपनी जिन्दगी जीं लेना
खुलकर दो पल को हँस लेना
रात बेखौफ रास्तों पे चल लेना
मैं मना लूंगा मातम
बेहिचक
तुम्हारे चलें जाने का.. रो लूंगा मैं
मैंने जो तुमसे छीना हैं.. जो लूटा हैं
लौटा तो नहीं सकता
मगर खुद को बदल सकता हूँ
दो कदम देर से ही सही.. चल सकता हूँ
मैं माँगता हूँ हर गुनाह की माफी
अब तुम समझना.. तुम समझना.. तुम समझना
बिछड़ कर मुझसे चले जाने के बाद
तुम कोई साथी ढूंढ लेना
तुम कोई साथी ढूंढ लेना।

नितेश वर्मा