Wednesday, 2 September 2015

अब भी

अब भी जब कभी घर में मैं अकेला होता हूँ, तुम्हारी याद बरबस आ जाती है। आँखों से जाने क्यूं आँसू निकल कर तुम्हारी अजीब-अजीब तस्वीरें बनाने लगती है। मैं हैरान हूँ, मैं अब भी कहीं तुम्हें खुद में लेकर चल रहा हूँ। जिन्दगी के इस मोड़, उम्र की इस दहलीज  पर आकर जहाँ सब नागँवारा लगता है। लेकिन क्या करें इनपर मेरा कोई इख्तियार थोड़े ही ना है, अब तुम याद आती हो तो आती हो, लेकिन जब पीछे से मेरी बेटी मुझसे निगाहें छिपाकर वो पढ़ने की कोशिश करती है, मैं उसे अपने गोद में उठा लेता हूँ और उस पन्ने को फिर से उसी डायरी में डाल देता हूँ, जो मैं कभी तुम्हें देना चाहता था।  

नितेश वर्मा

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