Thursday, 24 September 2015

मैंने एक सिगरेट सुलगायीं थीं

मैंने एक सिगरेट सुलगायीं थीं
पीने के तलब से नहीं
कुछ वक़्त तन्हा होना चाहता था
मैं खामोश कुछ पल ही सही
गुजारना चाहता था
खामोशियों में उड़ता वो धुआं
काले कुहरे सा धुआं
सफेद दिखता है जैसे घना बादल
जब भी राख जलकर गिरती हैं
मैं सिगरेट की डिब्बे को देखकर
शर्मिंदा हो जाता हूँ
मैं उसे बुझा देना चाहता हूँ
मेरे करीब बैठा वो
एक दोस्त मेरी उँगलियों को
थाम लेता है
रिहा करता है मेरी पकड़ को
सिगरेट अब मुझसे लेकर
वो इक कश भरता हैं
शमाँ होती हैं.. महफ़िल बैठती हैं
सब छोड़ देना चाहते हैं पीना
मग़र लत हैं जो उतरतीं नहीं।

नितेश वर्मा और लत।

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