Wednesday, 2 September 2015

तुम्हारी हाथों की कंघन

कड़ाके की सर्द सुबह की आगाज
मेरा साइकिल पर बैठ कर
हल्के रफ्तार से घर से निकलना
ठीक 5 बजे
तुम्हारा उस मोड़ पे मिल जाना
तुम्हारा मुझे एक भर देखना
फिर नजरें बदलकर चल देना
याद आ जाता है अब भी
जब भी
कोई पुरानी चीज़ें समेटता हूँ
तुम्हारी हाथों की कंघन
जिन्दगी सुनाती है अब भी।

नितेश वर्मा

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