उस शाम जब मैं
खुद में टूट रहा था
अपनों से जूझ रहा था
एक कांधे की
जब मुझे जरूरत थीं
मैं तुम्हें तलाशता
फिर तुम्हारा
भींगी पलकों से
मुझे देखना
और तुम्हारा
वो इक पल में
कहके ये चले जाना
के अब मैं तुमसे
बात नहीं कर सकती
मेरा क्या हुआ था
उस शाम
आज तक दुहराती है
शामों में आँखें मेरी।
नितेश वर्मा
खुद में टूट रहा था
अपनों से जूझ रहा था
एक कांधे की
जब मुझे जरूरत थीं
मैं तुम्हें तलाशता
फिर तुम्हारा
भींगी पलकों से
मुझे देखना
और तुम्हारा
वो इक पल में
कहके ये चले जाना
के अब मैं तुमसे
बात नहीं कर सकती
मेरा क्या हुआ था
उस शाम
आज तक दुहराती है
शामों में आँखें मेरी।
नितेश वर्मा
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