Thursday, 17 September 2015

ट्रेन आने में वहीं रोज़ की देर

ट्रेन आने में वहीं रोज़ की देर
एक लम्बी सी रात
थकन एक चादर ओढे
बिस्तर का ठिकाना नहीं
मैं सोने चला जाता हूँ
अगली सुबह
होश खुलती है
मेरे सारे सामान गायब है
जेब में एक पैसा नहीं
घर जाने की उम्मीद
नैराश्य में तब्दील होकर
मुझसे कुछ ढूंढती है
मैं परेशान सा
कुछ तलाशता हूँ
फिर हारकर वहीं
जमीं पर लेट जाता हूँ
एक आवाज़
भैया उठ जाओ
मुझे सब साफ़ करना है।

नितेश वर्मा

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