Friday, 25 September 2015

पापा जब भी ये कहते

मुझे नहीं लगता कुछ होने जाने वाला है
पापा जब भी ये कहते
माँ उन्हें एक ठंडे ग्लास का पानी
मुस्कुरा कर पकड़ा देती
मैं आँगन के बीच में बिछी चटाई पर
चुपचाप सर झुकाएँ अपनी हिन्दी के
किताब की उसी कविता को दुहरा देता
जो मुझे हर दफा डाँट सुनने के बाद
गुनगुनाना होता था
जो मुझे याद होता था बिलकुल लयबद्ध
धीरे-धीरे मैं कविता में रम जाता
पापा रेडियो आन कर लेते
माँ शाम की पकौडियाँ तलने लगती
आसमान में तारें बिछने लगते सुदूर
सब खूबसूरत लगने लगता
फिर हौले-हौले हवा भी चलने लगती
जब कभी तुम आ जाती।

नितेश वर्मा

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