Tuesday, 29 September 2015

फिर तुमको सोचना होगा

अगर धूप से छाँव ड़रने लगे
पश्चिमी हवाएँ भी सहम कर बहने लगे
शहर से दूर बसी गाँव बिखरने लगे
अपनों की जिक्र पे जुबां मुकरने लगे
फिर तुमको सोचना होगा

किताबें जब झूठी दास्ताँ बताने लगे
मजहब जब कोई कौम बुरा बताने लगे
कोई तस्वीर जब ड़राने लगे
दरख्त भी सायों में गम गुनगुनाने लगे
फिर तुमको सोचना होगा

बादल आए और बरसें भी ना
संदेश भी जब शहर को सोहाये ना
बात अंग्रेजों को हिन्दी की भाये ना
दिल हो अखबार पर लिख पाये ना
फिर तुमको सोचना होगा

परिंदों की उड़ान जब जमीं ढूंढें
घरों की मकान जब वजह ढूंढें
लौट कर बच्चे जब माँ ना पुकारें
दर्द भी जाने को जब रिश्वत माँगें
फिर तुमको सोचना होगा

फिर तुमको जगना होगा हर गहरी नींद से
चलना होगा निर्भय.. अपने हक को
छीनना होगा.. मुक्कदर से लड़ना होगा
ऐसा होगा तो सोच लो.. चुप नहीं रहना होगा
फिर तुमको सोचना होगा
फिर तुमको सोचना होगा।

नितेश वर्मा और फिर तुमको सोचना होगा ।

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