तमाम फसाद की जड़ मेरा लिखना हैं
बिक जाता हूँ मैं काम मेरा बिकना हैं।
सुबह धूप में आँखें खुलती नहीं हैं मेरी
तो चरागों में भी कहाँ कुछ दिखना हैं।
पहेलियाँ सुलझाता हूँ यूं रात भर तन्हा
तन्हाइयों में उलझकर कुछ सीखना है।
बात और भी हद से बढ़ गयीं हैं वर्मा
कुछ भी हो भोर कली को खिलना हैं।
नितेश वर्मा
बिक जाता हूँ मैं काम मेरा बिकना हैं।
सुबह धूप में आँखें खुलती नहीं हैं मेरी
तो चरागों में भी कहाँ कुछ दिखना हैं।
पहेलियाँ सुलझाता हूँ यूं रात भर तन्हा
तन्हाइयों में उलझकर कुछ सीखना है।
बात और भी हद से बढ़ गयीं हैं वर्मा
कुछ भी हो भोर कली को खिलना हैं।
नितेश वर्मा
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