हर कदम पे मुरझाये है
दिन गुलाब के
अब कैसे आये हैं
टूट के बिखरे पड़े हैं
बेतरतीब ख्यालों से
कोई हाथ ना उनको
अब तो समेट पाये है
हर कदम पे मुरझाये है
दिन गुलाब के
अब कैसे आये हैं ।
पहले दबी किताबों में मिलते
तो किसी के बालों में मिलते
कोई लट उलझी रहती थीं
तो वो बाह डाले
किसी के बाहों में मिलते
हर कली मुस्कुराती थीं
हर लड़की दीवानी होती थी
इन बातों से
अब जी घबराता हैं
कैसे मौसम अब आये है
हर कदम पे मुरझाये है
दिन गुलाब के
अब कैसे आये हैं ।
नितेश वर्मा
दिन गुलाब के
अब कैसे आये हैं
टूट के बिखरे पड़े हैं
बेतरतीब ख्यालों से
कोई हाथ ना उनको
अब तो समेट पाये है
हर कदम पे मुरझाये है
दिन गुलाब के
अब कैसे आये हैं ।
पहले दबी किताबों में मिलते
तो किसी के बालों में मिलते
कोई लट उलझी रहती थीं
तो वो बाह डाले
किसी के बाहों में मिलते
हर कली मुस्कुराती थीं
हर लड़की दीवानी होती थी
इन बातों से
अब जी घबराता हैं
कैसे मौसम अब आये है
हर कदम पे मुरझाये है
दिन गुलाब के
अब कैसे आये हैं ।
नितेश वर्मा
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