Tuesday, 15 September 2015

हर कदम पे मुरझाये है

हर कदम पे मुरझाये है
दिन गुलाब के
अब कैसे आये हैं
टूट के बिखरे पड़े हैं
बेतरतीब ख्यालों से
कोई हाथ ना उनको
अब तो समेट पाये है
हर कदम पे मुरझाये है
दिन गुलाब के
अब कैसे आये हैं ।

पहले दबी किताबों में मिलते
तो किसी के बालों में मिलते
कोई लट उलझी रहती थीं
तो वो बाह डाले
किसी के बाहों में मिलते
हर कली मुस्कुराती थीं
हर लड़की दीवानी होती थी
इन बातों से
अब जी घबराता हैं
कैसे मौसम अब आये है
हर कदम पे मुरझाये है
दिन गुलाब के
अब कैसे आये हैं ।

नितेश वर्मा

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