Thursday, 24 September 2015

बारिश तो छूट ही जानी हैं

जब भी मैं खामोश बैठ जाता हूँ
किसी अजनबी सोच को लेकर
कोई हल्की सी धुन खनकती हैं
हवाएँ बेहिस शरारतें करती हैं
मैं बार बार सुलझाता हूँ खुदको
कानों में बजती वो ग़ज़ल
बिखर जाती हैं
जब सामने की खिड़की पर
तुम आती हो
तुम्हें एक झलक वो देखने में
इयरफोन कानों से निकलकर
हाथों में आ जाते हैं
फिर कमबख्त ये बारिश
और तुम अचानक
खिड़की बंद कर लेती हो
मैं मुस्कुरा देता हूँ इस हाल पर
फिर वो हाथों की इयरफोन
मेरे कानों में चली जाती हैं
इस उम्मीद में
बारिश तो छूट ही जानी हैं।

नितेश वर्मा


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